हल किए जा रहे हैं लंबे समय से अटके मुद्दे

गोपालकृष्ण अग्रवाल,

आर्थिक विषज्ञ

मोदी सरकार अपने दूसरे कार्यकाल का पहला वर्ष पूरा कर चुकी है। 2019 का जनादेश ऐतिहासिक था। 35 साल बाद किसी सरकार की इतने प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में वापसी हुई। ऐसा जनादेश आत्मविश्वास तो देता ही है, साथ में कई चुनौतियां भी लेकर आता है। पहले कार्यकाल में सरकार ने पारदर्शिता और समान अवसर सुनिश्चित करने वाले कई संरचनात्मक बदलावों को अंजाम दिया जिनके चलते धन की केंद्रीकृत प्रवृत्ति, बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार, सामाजिक वितरण तंत्र में रिसाव और कर संग्रह में अनियमितता बीती बात हो चुके हैं। मोदीजी ने कभी खुद को केवल प्रबंधन करने तक सीमित नहीं रखा। चुनौतियां को हमेशा अवसर मानकर उन्होंने हर समस्या का दृढ़ता से सामना किया।विचारधारा को प्राथमिकताइस लिहाज से देखें तो दूसरे कार्यकाल का यह पहला साल भी कम विकट नहीं रहा है। सरकार का ध्यान जीवनयापन में सुगमता लाने और अर्थव्यवस्था को औपचारिकता प्रदान करने पर अधिक रहा।

इस वर्ष विचारधारा को अन्य चीजों पर वरीयता प्राप्त हुई है। अमित शाह ने ठीक ही कहा था कि ‘हम दूसरे कार्यकाल में केवल शासन करने के लिए नहीं, भारत के दीर्घकालिक मुद्दों को हल करने के लिए चुने गए हैं।’ ऐसी कुछ ऐतिहासिक समस्याओं से भारत त्रस्त था। अनुच्छेद 370 को एक अस्थायी प्रकिया के रूप में लाया गया था, पर वह हमें स्थायी रूप से परेशान कर रहा था। जम्मू-कश्मीर के भारत का अभिन्न अंग होने की बात हम दोहराते रहते थे लेकिन जमीन पर स्थिति बिल्कुल अलग थी। मोदी सरकार ने इसे एक झटके में हटा दिया। लोग चकित थे कि हम इतने वर्षों से इंतजार क्यों कर रहे थे! नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) लाना, रोहिंग्या घुसपैठियों का मुद्दा उठाना या एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर) पर काम शुरू करना बताता है कि इस सरकार के लिए भारत का राष्ट्रीय हित सर्वोच्च है।

इस कार्यकाल का दूसरा बजट पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के लिए रोडमैप तैयार करने के लिहाज से मील का पत्थर है। इस बजट में आर्थिक विकास के तहत सरकार ने सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों जैसे तकनीकी केंद्रों, बिजली और अक्षय ऊर्जा, कनेक्टिविटी के लिहाज से महत्वपूर्ण हवाई अड्डों, बंदरगाहों और रेलवे का ध्यान रखा। वित्त मंत्री ने केंद्र, राज्य और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के माध्यम से वित्तपोषण के लिए 6500 परियोजनाओं की पहचान करने वाली राष्ट्रीय अवसंरचना पाइपलाइन के तहत 103 लाख करोड़ रुपये के निवेश से जुड़े तंत्र को स्वरूप दिया।

व्यापक धन सृजन, व्यावसायिक नीतियों और न्यूनतम सरकारी हस्तक्षेप पर केंद्रित इस बजट में करदाता के अधिकार चार्टर के रूप में प्रशासन के भीतर जवाबदेही लाने का एक महत्वपूर्ण कदम भी शामिल है। करदाता के अधिकार का प्रावधान दुनिया भर में केवल तीन अन्य देशों में मौजूद है।कॉर्पोरेट करों में 25 प्रतिशत कमी करने, कंपनी अधिनियम 2013 में व्यापक बदलाव लाने, घरेलू इकाइयों की सुरक्षा के लिए आरसीईपी समझौते पर हस्ताक्षर से इनकार करने, आसियान देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए) पर पुनर्विचार करने और आठ खंडों में आयात शुल्क बढ़ाने जैसे कदम उद्योगों को अनुचित वैश्विक प्रतिस्पर्धा के हमले से बचाने के लिए उठाए गए हैं। कोविड-19 एक नई परिघटना है।

आर्थिक अनिश्चितता, नौकरियों की अनियमितता और वित्तीय समस्याओं के कारण अर्थव्यवस्था में मांग कम हो रही है, इसलिए सरकार का ध्यान मांग बढ़ाने पर है। बदले माहौल में गैर-वैश्वीकरण की प्रवृत्ति और तेज हो सकती है इसलिए भारत महत्वपूर्ण उत्पादों और क्षेत्रों में आत्मनिर्भर होने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है।इनसॉल्वेंसी और बैंकरप्सी कोड में सरकार के प्रयासों के परिणामस्वरूप ब्याज पर जोखिम प्रीमियम कम हुआ है और रिजर्व बैंक द्वारा रेपो और रिवर्स रेपो दर में लगातार कमी ने प्रमुख उधार दर को नीचे ला दिया है। वर्तमान में अधिक लॉजिस्टिक कॉस्ट के चलते हमारे विनिर्माण क्षेत्र के लिए परिवहन लागत विश्व स्तर से कोई 40 प्रतिशत ज्यादा है। सरकार ने 2022 तक इसे नीचे लाने के लिए राष्ट्रीय लॉजिस्टिक नीति की घोषणा की है।

श्रम सुधारों की आवश्यकता को समझते हुए कई मौजूदा श्रम कानूनों को चार श्रम संहिताओं में समेकित करने का फैसला किया गया है। श्रम सुधारों के अनुपालन में ढील देने और मजदूर कल्याण को आसान बनाने, निर्माण क्षेत्र में श्रमिकों के लिए सुविधा तैयार करने और उनके लिए यूनिवर्सल अकाउंट नंबर लाने जैसी पहलकदमियां इसमें शामिल हैं।कानूनों के आसान अनुपालन के लिए तकनीकी नवाचार जरूरी है। सरकार ने आयकर अधिनियम के लिए वर्चुअल ई-आकलन की घोषणा की है। रिजर्व बैंक, रजिस्ट्रार ऑफ कंपनी और सेबी आदि के अधिकांश अनुपालन ऑनलाइन हो गए हैं। अप्रत्यक्ष करों को जीएसटी नेटवर्क के माध्यम से ऑनलाइन किया गया है। केंद्र सरकार ने अधिकांश क्षेत्रों में स्वचालित मार्ग से एफडीआई की अनुमति दी है, जिनमें कुछ में ही सेक्टोरल कैप हैं। एफडीआई को सुगम बनाने के लिए फेमा और प्रत्यावर्तन नियमों के तहत प्रतिबंधों में छूट दी गई है।भविष्य का रोडमैपकेंद्र सरकार ने अटल इनोवेशन मिशन, अटल इन्क्यूबेशन सेंटर और अटल टिंकरिंग लैब्स जैसे मजबूत स्टार्ट-अप इकोसिस्टम की स्थापना की थी।

आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई), बिग डेटा और एनालिटिक्स जैसे उभरते क्षेत्रों में भारत के लिए बड़ी गुंजाइश है। आत्मनिर्भर भारत के अंतर्गत सरकार ने अर्थव्यवस्था, बुनियादी ढांचे, प्रौद्योगिकी जैसे पांच स्तंभों पर ध्यान केंद्रित किया है, जिससे अनेक अवसर पैदा होंगे। मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में आगे के लिए रोडमैप तैयार है और हम पूरे उत्साह के साथ इस पर अमल को लेकर प्रतिबद्ध हैं। भारत के हित और प्रखर राष्ट्रवाद के साथ हमारी सरकार सभी नीतियों को लागू कर रही है और यह आश्वासन दे रही है कि सबका भविष्य सुरक्षित हाथों में है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

त्योहारी सीजन में खरीदारी के लिए दोगुने ग्राहक तैयार, ऑनलाइन शॉपिंग और डिजिटल भुगतान पर सभी का जोर

गोपालकृष्ण अग्रवाल,

आर्थिक विषज्ञ

लोकल सर्किल के एक सर्वे में कहा गया है कि मई के महीने में केवल 30 फीसदी उपभोक्ता त्योहारी सीजन में खऱीदारी की योजना बना रहे थे, जबकि सितंबर महीने में 60 फीसदी उपभोक्ताओं ने कहा कि वे आने वाले त्योहारी सीजन में घरेलू उपभोग के लिए खरीदारी करेंगे। इस प्रकार खरीदारी के लिए तैयार उपभोक्ताओं की संख्या में 100 फीसदी का सुधार आया है…

अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर एक और अच्छी खबर है। मई महीने की तुलना में दोगुने ग्राहक आगामी त्योहारी सीजन में खरीदारी करने के लिए तैयार हैं। मई में केवल 30 फीसदी ग्राहक ही खरीदारी करने की योजना बना रहे थे, जबकि सितंबर महीने में यह आंकड़ा दोगुना बढ़कर 60 फीसदी हो गया है। कुल खरीदारी में बड़ा हिस्सा ऑनलाइन बाजार के हिस्से जाने वाला है तो दुकानों की रिटेल खरीद को कुल खरीद का लगभग 48 फीसदी हिस्सा मिलने वाला है। सामानों की खरीद में स्मार्टफोन, इलेक्ट्रॉनिक्स और त्योहारी सीजन के उपहार सबसे ऊपर रहने वाले हैं। आर्थिक विशेषज्ञ इसे अर्थव्यवस्था के सुधरते संकेत के रूप में देख रहे हैं।

लोकल सर्किल के एक सर्वे में कहा गया है कि मई के महीने में केवल 30 फीसदी उपभोक्ता त्योहारी सीजन में खऱीदारी की योजना बना रहे थे, जबकि सितंबर महीने में 60 फीसदी उपभोक्ताओं ने कहा कि वे आने वाले त्योहारी सीजन में घरेलू उपभोग के लिए खरीदारी करेंगे। इस प्रकार खरीदारी के लिए तैयार उपभोक्ताओं की संख्या में 100 फीसदी का सुधार आया है।

खरीदारी के लिए तैयार कुल उपभोक्ताओं में आधे से कुछ ज्यादा 52 फीसदी ने कहा कि वे यह खरीदारी ऑनलाइन बाजार से करेंगे, जबकि 48 फीसदी उपभोक्ता बाजार में जाकर चीजें पसंदकर खऱीदारी करने की तैयारी कर रहे हैं। खरीदारी करने वाले उपभोक्ताओं में 55 फीसदी ने कहा कि वे स्मार्टफोन या कोई इलेक्ट्रॉनिक सामान खरीदने की योजना बना रहे हैं तो 67 फीसदी उपभोक्ताओं ने कहा कि वे कपड़े और फैशन से जुड़े उत्पाद खरीदेंगे।


दीपावली के सीजन में दिए जाने वाले उपहारों के कारण ड्राइफ्रूट या मिठाइयों की खरीद में भी उछाल आएगा। लगभग 72 फीसदी उपभोक्ता ड्राईफ्रूट, चॉकलेट या मिठाइयां खरीदने की तैयारी कर रहे हैं। 48 फीसदी उपभोक्ताओं ने कहा कि वे अपने प्रियजनों के लिए ऑनलाइन सामान खरीदेंगे तो 42 फीसदी उपभोक्ता अपने आसपास की दुकानों से उपहारों की खरीद करेंगे।

दो-तिहाई डिजिटल पेमेंट

ऑनलाइन खरीदारी और डिजिटल पेमेंट अब सामान्य ट्रेंड बनने की ओर तेजी से बढ़ रहा है। लगभग 66 फीसदी उपभक्ताओं ने कहा है कि वे खरीद के लिए ऑनलाइन माध्यम या डिजिटल माध्यम से भुगतान करेंगे। यह सर्वे देश के 396 जिलों में 1.15 लाख उपभोक्ताओं और 38 हजार घरों में लोगों से बातचीत कर तैयार किया गया है। इसमें 67 फीसदी पुरुष और 37 फीसदी महिलाएं शामिल थीं।

हर मानक दिखा रहे अर्थव्यवस्था में तेजी

आर्थिक विशेषज्ञ और भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता गोपाल कृष्ण अग्रवाल ने अमर उजाला से कहा कि अर्थव्यवस्था के हर बड़े मानक सुधार का संकेत दे रहे हैं। अर्थव्यवस्था के अग्रिम सेक्टर के उद्योगों में 11.2 फीसदी की रिकॉर्ड वृद्धि दर्ज की गई है। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में भी वृद्धि हो रही है। केंद्र का जीएसटी कलेक्शन हर महीने एक लाख करोड़ रुपये से ज्यादा दर्ज किया जा रहा है। 81 फीसदी कामकाजी श्रमिकों का वेतन कोरोना पूर्व काल की स्थिति में आ गया है। बजटीय घाटा लगातार कम हो रहा है। ये संकेत बता रहे हैं कि अर्थव्यवस्था बेहतर स्थिति में आ रही है।

भाजपा नेता ने कहा कि अब तक खुदरा सामानों की बिक्री, मांग में कमी और रोजगार के मोर्चे पर अपेक्षित सुधार न होना चिंता का कारण बना हुआ था। लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों ने अपने कर्मचारियों के महंगाई भत्ते में बढ़ोतरी की है और निर्माण कार्यों में तेजी आने से रोजगार के अवसरों में वृद्धि हो रही है। इससे शहरी क्षेत्र के उपभोक्ताओं की खरीद क्षमता में सुधार आया है।

वहीं, कृषि उत्पादों के निर्यात में बढ़ोतरी और फसलों की खरीद से किसानों के हाथ में पैसा पहुंचा है। केंद्र सरकार के द्वारा चलाई जा रही जनकल्याणकारी योजनाओं से भी ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों की आर्थिक क्षमता सुधरी है। इन सब प्रयासों का सकारात्मक परिणाम देखने को मिल रहा है कि लोगों की खरीद क्षमता में सुधार आ रहा है और बाजार में मांग में बढ़ोतरी हो रही है। उन्होंने कहा कि आगे आने वाले दिनों में यह गति बनी रहने की उम्मीद है।

भरोसेमंद नहीं आंकड़े

दिल्ली विश्वविद्यालय के राजधानी कॉलेज में अर्थव्यवस्था के प्रोफेसर डॉ. आभास कुमार ने अमर उजाला से कहा कि इन आंकड़ों पर बहुत भरोसा नहीं किया जा सकता। तकनीकी जानकारी न रखने वाला व्यक्ति भी बाजार में निकलकर देख सकता है कि लोगों के कामकाज में अपेक्षित वृद्धि नहीं हुई है और दुकानों में खरीद अभी कोरोना पूर्व के काल में नहीं आया है। ऐसे में अर्थव्यवस्था के बहुत तेज सुधार के दावे सही नहीं लगते।

प्रो. आभास कुमार के अनुसार, ज्यादातर मानकों के मामले में सरकार कोरोना काल से आज के आंकड़ों की तुलना कर अर्थव्यवस्था के बेहतर होने की बात कह रही है जो भ्रामक सूचना है। कोरोना काल में देश की अर्थव्यवस्था एक तिहाई कामकाज के भरोसे चल रही थी। दो तिहाई कामकाज पूरी तरह से ठप था और अर्थव्यवस्था में रिकॉर्ड गिरावट हुई थी। इसलिए उस स्थिति से तुलना कर आज बेहतरी का दावा करना उचित नहीं है।

हालांकि, यह सही है कि केंद्र-राज्य सरकारों ने अपने-अपने कर्मचारियों के महंगाई भत्ते जारी किए हैं, इससे इनकी खरीद क्षमता बढ़ी है और ये आने वाले त्योहारी सीजन में खरीदारी कर बाजार को एक गति देने का काम कर सकते हैं। लेकिन पूरे देश की आबादी में बेहद सीमित हिस्सा रखने वाला सरकारी नौकरी पेशा वर्ग इतनी बड़ी क्षमता नहीं रखता, जिससे उसके आधार पर पूरे देश की अर्थव्यवस्था में सुधार आने का दावा किया जा सके।

बाजार के कामकाज में सुधार तो हुआ है लेकिन अभी भी यह 50-60 फीसदी तक ही वापस आया है। बेरोजगारी अभी भी चिंताजनक स्तर पर बनी हुई है और हर चीजों की कीमतों में लगातार हो रही वृद्धि आम उपभोक्ताओं की कमर तोड़ रही है। ऐसे में अर्थव्यवस्था ठीक हो गई है और लोगों की क्रय क्षमता वापस आ गई है, इस मनोवैज्ञानिक स्तर तक पहुंचने के लिए अभी इंतजार करना होगा।

 (ये लेखक के अपने विचार हैं)

Need to Maximise valuations just selling off loss making PSU s not the answer

In pre-budget parleys with Centre, party offers suggestions on boosting valuation

Improved corporate governance, restraint in setting out targets and monetization of assets are some of the suggestions from the BJF to the government to improve valuation of the PSUs as part of a better divestment policy.

 The ruling party also believes that disinvestment of the LIC is not advisable.

Talking to BusinessLine, the BJP’s economic affairs spokesperson, Gopal Krishna Agarwal, said concerns and solutions about continued low valuation of the PSUs have been conveyed to the government in the post-pandemic resource crunch. the focus on middle class will not exactly result in direct tax concessions. It believes tax incentives to boost consumption is a better idea.

“How does one generate resources when fiscal deficit is already quite high and the borrowings have also gone up? The only alternative for resource generation is divestment. The issue is, even when the capital market is booming to almost record highs, the PSUs are still not getting proper valuation. We believe large-scale tweaking is required. The Government has to look into the reasons,” Agarwal said

Lessons learnt

Citing the instance of Hindustan Zinc Ltd (H21), where the valuation went up post-divestment, Agarwal said corporate governance needs to be factored into any future policy regarding divestment.

“One of the important suggestions from the capital market is corporate gov ernance. Also, we believe that the idea of the Government clearly setting out targets is also counter-productive. People know that this is coming for sale ,and there is a supply overhang. Monetization of assets is also critical,” he said.

Policy for strategic sale

According to Agarwal, an overarching policy is required for strategic sale and maximising valuation. He said simply selling off loss-making PSUs is not a good option. He also categorically said that the party is not in favour of selling LIC.

 “Five or six years back, perhaps Air India was getting a good price and attracting buyers. Now with a liability of 160,000 crore, who will buy it? We should not always think of offloading a loss-making company. A strategy is required. We have to learn from examples such as HZL, where the valuation went up because of corporate governance. In case of LIC, we do not believe it should be disinvested. LIC Is a holding company,” he said. He said while focusing on giving incentives to middle class, the suggestion is not to give any reduction in taxes.

“We have not suggested any reduction in taxes because already taxation limits for corporates and individuals has been brought down. Relaxation in saving limits is an option as is tax incentives to boost consumption.

Gopal Krishna Agarwal, BJP’s spokesperson Economic Affairs

Ensuring Water for the marginalised – I

To control water consumption, the pricing mechanism is not effective. Creating awareness may be a better option

India is not a water-starved country. The issue is inefficient distribution and management of water resources, particularly urban water management.

Water is a sensitive issue and has various dimensions and conflicts, such as equitable access, competing uses, quality issues, displacement vis-à-vis development, commercialisation, privatisation, urbanisation and inter-State conflicts. The government has urgent task addressing these issues.

In this two-part series, we discuss the right to water and efficacy of pricing of water on conservation and consumption by the marginal sections of society. Our govern- ment strives to achieve water for all and strike a balance between the right to water for life and its pricing to recover the costs and prevent its wanton overuse.

Use of domestic water forms an integral part of a poor household’s coping strategies. It is an important part of poverty alleviation. Providing a basic level of access to water and health services is the highest priority. Policy initiatives are targeted at increasing the number of households with sufficient levels of water resource and focus on consumption by the marginalised sections.

Earlier a comparison between per capita household water con sumption of sample households and the recommended norms given by Bureau of Indian Stand- ards (BIS), 2001 Master Plan of Delhi, Central Public Health Engin- eering and Environmental Organ- isation, Leak Detection and Invest- igation (LD&I) and Japan – International Corporation Agency, showed a bleak picture of con- sumption in low income areas.

As per ‘India-Urban Slums Survey: NSS, 69th Round’, at an all-India 

level, though households living in slum areas now have improved access to drinking water, households living in non-slum areas have better access. This disparity in water availability and use is increasing between economically lower and upper strata of the society.

The government’s Jal Jeevan Mission plans to provide tapped water to about 19 crore households, Har Ghar Jal, and fulfill an important commitment in the Constitution, for provision of potable water to all its citizens. But there is a lot ground to be covered. At the policy level there are competing ideologies and divided views, particularly on pricing and conservation. We need discussion and debate on water.

Water Precious resource AFP

Pricing matters little

There are diverse views relating to the impact of pricing of water on consumption behaviour. Many studies on household consumables like water show that they are price-inelastic. Despite this inherent inelasticity, some studies suggest that price could be a good water-demand management tool.

Based on the economic principle that demand decreases with increase in prices, some economists believe that efficient water management requires clear price signals that provide incentives for efficient use of water, resulting in efficient allocation of water among competing demands.

Awareness of the prevailing price and self declared response to a change in price of water by house- holds is considered as basic indicators to gauge price sensitivity, our study observed that the consump- tion of around 90 per cent of the households of low-income colonies will not come down as their con- sumption levels were already very low.

The proportion of income spent on water is another important parameter and our study, using primary data, shows it is 4.93 per cent, implying that the households are less sensitive to water prices. Also, the proportion of income spent on water, falls as we move from the lower to higher-income colonies suggesting that the sensitivity to prices of the lower-income group is higher than the higher-income groups.

So the consumption of water demand is highly price-insensitive. This is because people perceive water as a necessity and not a luxury. It also implies that increasing the price may not reduce the consumption of water significantly. Most of the literature on willingness to pay by consumers justifies market pricing of water, as there is a willingness to pay. But an important aspect ignored in these studies is that the willingness to pay will always be there for necessities, in case of a shortage. Affordability should be given more priority in designing policies pertaining to essential elements like water. Pricing of water is a critical policy decision. The poor will be affected more than higher-income classes.

The best way to reduce household water wastage is to spread awareness about the means to save water at home. Creating conscious- ness about the repercussions of us- ing water carelessly will also help people to be more careful in its usage. Some of the water-efficient equipment such as low-flow showers and taps, dual flushing systems, water-saving equipment to wash clothes and utensils or even simple taps in resettlement colonies etc., can help a lot in conservation.

Gopal Krishna Agarwal is President of Jaladhikar Foundation & National Spokesperson of BJP: Yuthika Agarwal is Assistant Professor of Economics, Delhi University

हरित अर्थवयवस्था के लिए प्रेरक बनेगी राष्ट्रीय हाइड्रोजन पॉलिसी

विभिन्न नीतियां लागू करने के साथ ही रोडमैप बनाए जा रहे हैं। जब उद्देश्य स्पष्ट हैं, स्वच्छ और हरित ऊर्जा के लिए उच्चतम स्तर की प्रतिबद्धता है, ऐसे में भारत निश्चित रूप से अपने लक्ष्यों को हासिल करने में सक्षम होगा।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों के लिए वैश्विक अगुवाई से निपटने के करने का भार अपने ऊपर ले लिया है और वे अक्षय ऊर्जा के लिए प्रतिबद्ध है। जाहिर है कि अक्षय ऊर्जा लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए शीर्ष नेतृत्व स्तर पर इच्छाशक्ति है। इसी प्रतिबद्धता के कारण, संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (सीओपी-21) के बाद, भारत ने उत्सर्जन मानदंडों को पूरा करने के लिए कुछ साहसिक कदम उठाए हैं। नतीजतन, पेरिस जलवायु परिवर्तन शिखर सम्मेलन के बाद, भारत के उलार्जन में वर्ष 2005 के स्तर पर 28 फीसदी की कमी आई है। एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत 2030 तक उत्सर्जन को 30 फीसदी तक कम करने के लक्ष्य को हासिल करने के लगभग निकट है। भारत ने सौर ऊर्जा को वैश्विक रूप से अपनाने में तेजी लाने के लिए फ्रांस के साथ मिलकर अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन बनाया है, जिसका प्रधान कार्यालय भारत में है। भारत की एक अन्य पहल में 2050 तक 80-85 प्रतिशत तक बिजली की मांग को नवीकरणीय स्रोतों के माध्यम से पूरा करना है। भारत, संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों के लिए भी प्रतिबद्ध है और उसके सभी 17 लक्ष्य सरकार की नौतियों में शामिल हैं। भारत ने हाल ही गैर-जीवाश्म स्रोतों से 40 फीसदी बिजली उत्पादन क्षमता का लक्ष्य हासिल किया है।

बिजली उत्पादन में हिस्सेदारी

भारत में बिजली उत्पादन में कोयले की हिस्सेदारी 44 फीसदी से अधिक है जबकि तेल का योगदान लगभग 25 फीसदी है। बायोएनर्जी और सीएनजी हिस्सा क्रमशः 21 और 5.8 प्रतिशत हैं, जबकि परमाणु और सौर ऊर्जा का हिस्सा काफी कम है। कोयला जलवायु के लिए खतरे की वजह है, जबकि तेल की कीमतें आसमान छू रही है। जैसे-जैसे भारत औद्योगिकीकरण की ओर बढ़ रहा है, लगता है प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत, वर्तमान में जो 30 फीसदी है, बढ़कर 2040 में लगभग दोगुनी हो जाएगी। इसका श्रेय इस तथ्य में निहित है कि भारत अब विश्वस्तर पर विनिर्माण उद्योग स्थापित करने के लिए दूसरा सबसे आकर्षक देश बन गया है।

हालांकि बड़ी पनबिजली परियोजनाओं को लेकर कुछ चिंताएं भी हैं, लेकिन भारत में इसकी काफी संभावनाए हैं। छोटी जलविद्युत परियोजनाएं महत्त्वपूर्ण पहल हो सकती है. हालाकि ये प्रोजेक्ट्स वर्तमान में लगभग न के बराबर है। पर ठीक इसी वक्त भारत अप दुनिया में सौर ऊर्जा क्षमता में पांचवां और पवन ऊर्जा क्षमता में चौथा सबसे बड़ा देश है। इस ऊर्जा का इस्तेमाल हरित हाइड्रोजन (शुन्य कार्बन उत्सर्जन ईंधन) के उत्पादन के लिए किया जा सकता है जो पूरे ऊर्जा क्षेत्र में बड़ा गेमचेंजर साबित होगा।

हाइड्रोजन ऊर्जा का बड़ा स्रोत है। हालाकि वर्तमान में कई चुनौतियां हैं और भारत इस क्षेत्र में बड़ा योगदानकर्ता भी नहीं है। पर जिस तरह से निजी निवेश और सरकार आगे बढ़ रही है, उससे देश को बड़ा लाभ ए मिल सकता है। ऊर्जा सुरक्षा, डोकावर्बोनाइजेशन और की कम कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य को पूरा करने में श्रम हाइड्रोजन मदद करेगा। एक अनुमान के अनुसार, भविष्य की चुनौतियों से निपटने के लिए इस पर 500 बिलियन डॉलर से अधिक निवेश की जरूरत होगी। कई निजी कंपनियों और एनटीपीसी जैसी कुछ सरकारी कंपनियों ने भी बड़े लक्ष्य तय किए हैं। 2030 तक 316 बिलियन डॉलर के निवेश प्रतिबद्धता की उम्मीद है। सरकार की नीतियां सहायक है और भारत इस क्षेत्र का बड़ा खिलाड़ी चन सकता है।

अनुकूल पारिस्थितिकी तंत्र

मौजूदा वक्त में, हाइड्रोजन टेक्नोलॉजी के लिए लागत बड़ी चुनौती है। चीन से सौर ऊर्जा क्षेत्र मामले में भी बड़ी प्रतिस्पर्धा है। एक बड़ी चुनौती जो निजी क्षेत्र की तरफ से मिल सकती है, वह हालाकि सरकार व्याज लागत को लगातार कम कर ने रही है, पर चुनौती से निपटने के लिए ऊर्जा के अधिक स्रोतों और धन की जरूरत है। अगर नई पहल और अनुसंधान के साथ नई एवं बेहतर तकनीक अमल में ई जाए तो उत्पादन चुनौतियों लाई सकता है। का सामना किया जा सकता है।

चुनौतियों को समझने और उसके समाधान पर भी सरकार काम कर रही है। परिवहन और काव्ये माल की उपलब्धता जैसी चिंताओं के मद्देनजर सरकार नाई औद्योगिक और संचालन क्रियान्वयन नीतियों पर काम कर रही है। सरकार का मैन्युफैक्चरिंग बेस बनाने पर भी फोकस है। आत्मनिर्भर भारत की संकल्पना के तहत सरकार ने बिजली क्षेत्र के उयन ग्रिड में सुधार, ट्रांसमिशन को बेहतर बनाने और डिस्कॉम में वृद्धि आदि के लिए 90,000 करोड़ रुपए की भी प्रतिबद्धता जताई है। निजी कंपनियां और सरकार दोनों इस तथ्य से सहमत है कि हाइड्रोजन और सिलिकॉन ऐसे नए क्षेत्र है जो देश के लिए बहुत अधिक सम्पदा उत्पत्र कर सकते हैं। सरकार ने राष्ट्रीय हाइड्रोजन मिशन की स्थापना के लिए लगभग 1500 करोड़ रुपए की प्रतिबद्धता जताई है। विभित्र नीतियां लागू करने के साथ ही रोडमैप बनाए जा रहे हैं। अंततः जब उद्देश्य स्पष्ट है, स्वच्छ और हरित ऊर्जा के लिए उच्चतम स्तर की प्रतिबद्धता है, ऐसे में भारत निखित रूप से अपने लक्ष्यों को हासिल करने में सक्षम होगा।

सामग्री व्यापार को बढ़ावा देने के लिए रसद समर्थन मामले में सरकार न्नई नेशनल लॉजिस्टिक पॉलिसी लेकर आ रही है। यह एकीकृत रसद केंद्रों, हाइड्रोजन भंडारण, परिवहन, भंडारण और बंदरगाहों से जुड़े मुद्दों का समाधान करेगी। इसी तरह, कॉरपोरेट क्षेत्र की बैलेंसशीट में पर्यावरणीय लागत के समावेशन से परियोजना मूल्यांकन में उचित मदद मिलेगी। बैलेंसशीट में पर्यावरण के इन नवाचारों को अभिलेखबद्ध करना महत्त्वपूर्ण मुद्दा है जहां अधिक शोध और उत्थान हो सकता है। इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड अकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया (आइसीए‌आइ) के फाइनेंस अकाउंटिंग प्रोफेशनल्स यह नवाचार कर सकते हैं। हाइड्रोजन इकोनॉमी के बढ़ावे के लिए कम लागत वाली फडिंग के ज्यादा स्रोत होने चाहिए और सरकार इस दिशा में कदम उठा रही है।

गोपाल कृष्ण अग्रवाल, (लेखक बीजेपी के आर्थिक प्रकोष्ठ के राष्ट्रीय प्रवक्ता है।)

पानी पर आम आदमी के हक़ पर नहीं हो कोई दुविधा

पानी से पेट तो नहीं भरता, लकिन इसके अलावा बिना आप पृथ्वी क्या किसी भी ग्रह पर जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। जीवन का कोई भी ज्ञात स्वरूप जल के बिना अस्तित्व में नहीं रह सकता। हमारे अस्तित्व से लेकर प्रगति तक के लिए बेहद जरूरी इस संसाधन के महत्त्व को समझते हुए हमें यह भी देखना होगा कि इसका प्रबंधन कैसे हो, यह हर व्यक्ति तक कैसे पहुंचे और साथ ही इस पर मालिकाना हक किसका हो। इस समय भारत में पानी पर अधिकार को अदालतों के विभिन्न निर्णयों के माध्यम से ही तय किया जा रहा है। देश की शीर्ष अदालतों ने कई बार दोहराया है कि संविधान के अनुच्छेद- 21 के तहत जीवन के अधिकार के रूप में सरकार को देश के सभी नागरिकों को पीने का पानी उपलब्ध कराया जाना चाहिए। यह वाकई महत्त्वपूर्ण है। अब तक सरकार ने पानी के प्रबंधन और वितरण की राह दिखाने के लिए तीन राष्ट्रीय जल नीतियां बनाई हैं। पानी का उपयोग खेती से लेकर कारोबारी गतिविधियों और रिहायशी इलाकों तक किया जाता है। हालाकि ये सभी क्षेत्र एक दूसरे के साथ मुकाबला करते हैं, लेकिन व्यक्तिगत और घरेलू उपयोग के लिए पानी की उपलब्धता एक मानव अधिकार है।

भारत के शहरों में पानी की उपलब्धता मानव अधिकार के लिहाज से भी एक बड़ी चुनौती है। साथ ही यह तेजी से हो रहे शहरीकरण के साथ बुनियादी सेवाओं में गुणवत्ता तलाश रहे नागरिकों की अधीरता का कारण भी है। 2019 तक केवल दो करोड़ घरों में पानी के लिए नल के कनेक्शन थे। अब लगभग 9 करोड़ घरों में नल के पानी की उपलब्धता हो गई है। बेशक, केवल नल से पानी का स्रोत होना अच्छी गुणवत्ता या पर्याप्त मात्रा में पानी की कोई गारंटी नहीं है, फिर भी हर घर जल की योजना बहुत महत्त्वपूर्ण है। जहां पानी की पहुंच ही नहीं है, वहां स्वच्छता की उम्मीद नहीं की जा सकती है। इसलिए पानी के क्षेत्र में काम करने वालों के साथ ही स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए भी जरूरी है कि लोगों तक पानी की बुनियादी पहुंच सुनिश्चित करने को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाए।

हालांकि भारत के संविधान में पानी के अधिकार को स्पष्ट रूप से संरक्षित नहीं किया गया है, लेकिन अदालतों की ओर से इसकी व्याख्या की गई है कि जीवन के अधिकार में पर्याप्त पानी का अधिकार शामिल है। भारत में जल के अधिकार के लिए न्यायिक दृष्टिकोण स्पष्ट है। इसका मूल भाव है कि गरीब से गरीब व्यक्ति को जीवन की बुनियादी सुविधा के लिए जल प्रदान किया जाए । स्वच्छ पेयजल तक पहुंच का संवैधानिक अधिकार भोजन के अधिकार, स्वच्छ पर्यावरण के अधिकार और स्वास्थ्य के अधिकार से जोड़ा जा सकता है। ये सभी संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार के अंतर्गत संरक्षित हैं। संविधान के अनुच्छेद 21 के अलावा, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों में भी समुदाय के भौतिक संसाधनों पर समाज के सभी वर्गों के लिए समान पहुंच के सिद्धांत को मान्यता दी गई है।

भारत में भूजल के अधिकार को भूमि के अधिकार के साथ जोड़ कर देखा जाता है। भारतीय सुगमता अधिनियम, 1882, भूजल के स्वामित्व को भूमि के स्वामित्व से जोड़ता है। इस कानून की परिभाषा यह भी बताती है कि यदि आपका पड़ोसी बहुत अधिक पानी निकालता है और जल स्तर को कम करता है, तो आपको उसे ऐसा करने से रोकने का अधिकार है। इस प्रकार, भूजल के दोहन के किसी व्यक्ति के अधिकार की भी सीमाएं हैं। अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में देखें तो 28 जुलाई 2010 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने स्पष्ट रूप से पानी और स्वच्छता प्रदान करने के मानव अधिकार को मान्यता दी है। साथ ही स्वीकार किया है कि स्वच्छ पेयजल और स्वच्छता का अधिकार मानवाधिकारों की प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं।

नई परिस्थितियों में पानी से जुड़े अधिकारों और कानूनों का दायरा काफी व्यापक है। भारतीय न्यायपालिका ने इस लिहाज से सकारात्मक दृष्टिकोण भी अपनाया है, जो अंतरराष्ट्रीय मानदंडों और मानकों के अनुकूल ही है। भारतीय संविधान की समीक्षा करने वाले राष्ट्रीय आयोग ने अपनी रिपोर्ट में पानी के अधिकार संबंधी स्थिति में संवैधानिक प्रावधान के माध्यम से स्पष्टता लाने की जरूरत बताई है। इसके लिए सुरक्षित पेयजल के अधिकार के रूप में एक नए अधिकार को शामिल करने की सिफारिश भी इसने की है। राष्ट्रीय जल कानून 2016 सही दिशा में एक कदम था, लेकिन दुर्भाग्य से यह संसद में पास नहीं हो पाया। पानी के प्रावधान के लिए विभिन्न सरकारों और संस्थाओं के अधिकारों-कर्तव्यों को स्पष्ट रूप से दे रखने वाला कानून समय की आवश्यकता है।

यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि हर व्यक्ति तक आसानी से पानी पहुंच सके|

गोपाल कृष्ण अग्रवाल अध्यक्ष, जलाधिकार फाउंडेशन

युथिका अग्रवाल सहायक प्रोफेसर, अर्थशास्त्र, दिल्ली विश्वविद्यालय

पानी का मूल्य बढ़ने पर नहीं महत्व समझने पर रहे ध्यान

गोपालकृष्ण अग्रवाल, 

आर्थिक विषज्ञ

भारत पानी की कमी वाला देश नहीं है। हमारे पास पानी की पर्याप्त उपलब्धता है। फिर भी हमारे दैनिक जीवन में हम इस उपलब्धता को महसूस नहीं करते हैं और हमारे देश का बड़ा वर्ग शुद्ध पानी से वंचित है। कारण ऐतिहासिक रूप से जल संसाधनों का अकुशल वितरण और प्रबंधन है। पानी जीवन के लिए आवश्यक होने के कारण एक बहुत ही संवेदनशील विषय है और इसकी अनेक चुनौतियां और विभिन्न आयाम है। जरूरी है कि यह सभी तक समान रूप से उपलब्ध हो, इसका सही उपयोग हो, अच्छी गुणवत्ता हो। इसके साथ ही आंतरिक विस्थापन, व्यावसाईकरण, निजीकरण, शहरीकरण और अंतरराज्यीय संघर्ष भी इससे जुड़े हैं। सरकार के पास इन मुद्दों के समाधान की बड़ी चुनौती है।

घरेलू पानी का उपयोग गरीब परिवार के जीवनयापन का भी एक अभिन्न अंग क है। पानी और स्वास्थ्य सेवाओं को ब बुनियादी स्तर तक पहुंचाना सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता है। पूर्ववर्ती सर्वे के मि अनुसार प्रति व्यक्ति घरेलू पानी की खपत क और भारतीय मानक (बीआइएस), क 2001, दिल्ली मास्टर प्लान, केंद्रीय है सार्वजनिक स्वास्थ्य इंजीनियरिंग और प्र पर्यावरण संगठन और जापान म इंटरनेशनल द्वारा दिए गए अनुशंसित ह मानदंडों के बीच तुलनात्मक विश्लेषण में क कम आय वाले क्षेत्रों में खपत की धूमिल तस्वीर दिखाई देती है।

इंडिया-अर्बन स्लम सर्वे (एनएसएस), 69 वें राउंड के अनुसार, अखिल भारतीय स्तर पर हालाकि स्लम क्षेत्रों में रहने वाले परिवारों में पीने के पानी का स्रोत बढ़ा हुआ दिखता है, लेकिन दूसरी ओर गैर-झुग्गी-झोपड़ी क्षेत्रों में रहने वाले परिवारों के पीने के पानी के बेहतर स्रोत का प्रतिशत उस के अनुपात से काफी अधिक दिखता है। इससे चलता है कि समाज के आर्थिक रूप से निचले और ऊपरी तबके के बीच पानी की उपलब्धता और उपयोग में असमानता बढ़ रही है।

वर्तमान सरकार की जल जीवन मिशन योजना लगभग देश में सभी उन्नीस करोड़ घरों को नल के द्वारा पानी उपलब्ध कराने (हर घर जल) की महत्त्वपूर्ण पहल है और संविधान के अंतर्गत सरकार की प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए एक महत्त्वाकांक्षी योजना है। इसका लक्ष्य हासिल करने से पहले हमें और भी बहुत कुछ करना होगा। पानी की गुणवत्ता, मूल्य और मात्रा सुनिश्चित करनी होगी। नीतिगत स्तर पर इस लिहाज से कई विचारधाराएं और विचार हैं। विशेष रूप से मूल्य निर्धारण और संरक्षण को लेकर स्पष्टता नहीं है। हमें पानी के विषय पर गहन चर्चा और पारदर्शिता की आवश्यकता है। व्यक्तियों या घरों के व्यावहारिक उपभोग पर पानी के मूल्य के प्रभाव के संबंध में विविध विचार चल रहे हैं। पानी जैसी घरेलू आवश्यक वस्तुओं की कीमत के उपभोग पर प्रभाव को ले कर कई अध्ययनों से पता चलता है कि उपभोग पूरी तरह मूल्य पर आधारित नहीं है। इसके विपरीत कुछ अध्ययनों से यह भी पता चलता है कि कीमत एक अच्छा जल-मांग प्रबंधन उपकरण हो सकता है। आर्थिक सिद्धांत के आधार पर कीमतों में वृद्धि के साथ अधिकांश वस्तुओं की मांग की मात्रा कम हो जाती है, लेकिन जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं पर यह सिद्धांत पूरी तरह नहीं लागू होता।

हम यह जानते हैं कि कीमत के बारे में जागरूकता और पानी की कीमत में बदलाव के आधार पर उपभोग में बदलाव मूल्य संवेदनशीलता को मापने के लिए एक संकेतक माना जाता है। इस संकेतक पर हमारे वर्तमान अध्ययन में पाया गया है कि कम आय वाले लगभग 90 प्रतिशत घरों की खपत पानी के मूल्य बढ़ने से कम नहीं होगी, क्योंकि मूल रूप से उन घरों में पानी के उपभोग का स्तर पहले से ही आवश्यकता के अनुपात में बहुत कम पाया गया है। पानी पर खर्च की गई व्यक्तिगत आय का कुल आय के अनुपात को एक और पैरामीटर माना जाता है। हमारे अध्ययन के अनुसार औसतन पानी पर खर्च व्यक्तिगत आय, कुल आय का 4.93 प्रतिशत ही है। जैसे-जैसे हम निम्न आय वर्ग से उच्च आय वाले उपनिवेशों में जाते हैं, उनका पानी पर खर्च की जाने वाली आय का अनुपात और भी कम हो जाता है। इसलिए निम्न आय वर्ग की कीमतों की संवेदनशीलता उच्च आय समूहों की तुलना में कहीं अधिक है। इससे यह स्पष्ट होता है की कीमतों का पानी की खपत पर प्रभाव हाशिए पर रहने वाले वर्ग पर ही अधिक होगा।

निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि पानी की मांग अत्यधिक मूल्य-संवेदी नहीं है। मुख्य कारण यह है कि लोग पानी का उपयोग एक आवश्यकता के रूप में ही करते हैं, न कि एक विलासिता के रूप में। इसका तात्पर्य यह भी है कि कीमत बढ़ाने से घरेलू पानी की खपत में उल्लेखनीय कमी नहीं आ सकती है। यह भी मत भूलिए जब तक किसी चीज की कमी बनी रहेगी लोग आवश्यकता की वजह से उसके भुगतान के लिए तो तैयार हो ही जाएंगे, लेकिन पानी जैसी जरूरी चीज के बारे में निर्णय लेते समय लोगों के सामर्थ्य को ही प्राथमिकता देनी होगी। पानी का मूल्य निर्धास्ण एक महत्त्वपूर्ण नीतिगत निर्णय है। इससे उच्च आय वर्ग की तुलना में गरीब वर्ग ही अधिक प्रभावित होगा।

घर में पानी की बर्बादी को कम करने का सबसे अच्छा तरीका है घर में पानी बचाने के उपायों के बारे में जागरूकता फैलाई जाए। कम प्रवाह वाले शावर और नल, दोहरी फ्लशिंग प्रणाली, कपड़े और बर्तन धोने के लिए पानी की बचत करने वाले उपकरण मदद कर सकते हैं। सरकार सभी को पानी उपलब्ध कराने का प्रयास कर रही है। साथ ही लागत वसूली के लिए मूल्य निर्धारण और इसके अत्यधिक उपयोग को रोकने में संतुलन बना रही है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Budget will need to tackle covid hurdles

By Gopal Krishna Agarwal,

The government is aware of the pain points. It will make required interventions in order to propel our economy to the next level

Global economies have been hit hard by the COVID-19 pandemic, and India is no exception. Post-pandemic economic recovery is a big challenge for all of us. Governments and central banks across the world resorted to fiscal and monetary measures to ward off the negative impact of the crisis. These measures included liquidity infusion, credit enhancement, deficit financing, direct benefit transfers, even the printing of currency, and the distribution of helicopter money.

These stimulus packages did help in the economic recovery, but disruptions in the global supply chain and the resultant strengthening of commodity prices and liquidity overhang have led to inflation. Now, when the central banks have started sucking the liquidity out of the system to contain inflation and governments are reversing the stimulus in the interests of fiscal consolidation, a sustainable global economic recovery seems to be a distant goal.

The Indian government also came out with a stimulus package in the form of Atmanirbhar Bharat (self-reliant India), which had several measures but stopped short of printing currency, and did not resort to the distribution of helicopter money. So, post-pandemic, the Reserve Bank of India (RBI) is comfortably placed in its fight to contain inflation. It can reverse the excess liquidity from the economy in a phased manner while continuing to extend credit support to the needy segments. The government also has ample space for fiscal consolidation.

Our economy, at present, is in a resilient mode, and we are witnessing a sharp post-pandemic recovery, thanks to the farsighted approach of the Narendra Modi government and the RBI. This confidence in our economy is not only visible domestically but also seen within the global investor community. Our macroeconomic parameters are strong across segments. The government and the RBI. This confidence in our economy is not only visible domestically but also seen within the global investor community. Our macro-eco-nomic parameters are strong across segments. The government is continuing with its infrastructure spending, and schemes such as Production Linked Incentives (PLI) are bringing the desired results in the domestic manufacturing sector.

It is against this background that the budget for 2022-23 will be presented. The first requirement to put economic growth on a sustainable path is to identify current challenges and to come up with a roadmap to address them.

The economic repercussion of the pandemic in India has not been equitable,e and it has been particularly harsh on the informal sector.

Consequently, there has been a deepening of income and wealth disparity in society. The last few years have seen very little growth in aggregate private consumption in the economy. Any support for the informal sector will help in increasing private consumption as well.

Micro, small, and medium enterprises (MSMEs) are the growth engines of the economy, but were severely affected by COVID-19-related disruptions. They require working capital and other credit facilities. It is expected that the government will extend the credit guarantee scheme for MSMEs. There is also a fear that the looming liquidity crisis might transform into a solvency crisis; it would, therefore, be advisable that the Insolvency and Bankruptcy Code (IBC) provide additional relief to small firms. There is a growing consensus that this segment requires new instruments for private capital formation.

It is expected that the government will focus on fiscal consolidation from the coming financial year. However, there is considerable uncertainty regarding its pace. A fiscal consolidation road map will help in the orderly working of the financial and capital markets. However, the glide path of fiscal consolidation should not be too steep.

Another important issue is the rapid rise in commodity prices, affecting businesses because they are not able to pass on the increased costs to consumers due to weak demand. Reducing import duties on such products will tame costs and reduce inflation, particularly the wholesale price index (WPI). This will also help manufacturing industries, which were adversely impacted due to the rising costs of base metals and raw materials.

Though Goods and Services Tax (GST) collections are increasing, over the years, the average tax rate under GST has come down to around 11.6%, much below the revenue-neutral GST rate of 15-15.5% as envisaged at the time of GST implementation. There is space to improve the average tax rate to bring it to around 15.5%. The government must improve the tax-to-Gross Domestic Product (GDP) ratio.

The corporate tax rate has also been reduced to around 25% on average. However, for the tax-paying middle and upper middle class, the highest marginal rate of taxation is above 40% right now. If the government introduces infrastructure bonds, which provide for additional investment-related deduction from taxable income, then not only will it bring down its total tax liability, but also generate critical financial resources to invest in infrastructure.

Disinvestment has been one of the focus areas of the Narendra Modi government, and the driving principle behind this is the government’s belief that public money locked in such assets should generate higher returns. However, a section of analysts and Opposition parties have tried to portray this as an exclusively revenue-generating measure. The government needs to reaffirm the principles of better utilisation of public capital, underlying the disinvestment plan in the budget. Monetisation of the assets of public sector undertakings has not been taken up as envisaged earlier and will require renewed efforts.

Our government is well aware of these pain points. The public is confident that it will make required interventions in this budget to propel our economy to the next level, and this positive sentiment is quite visible in the business ecosystem. The government will continue on its path of economic reforms to build on this business confidence.

Gopal Krishna Agarwal is the Bharatiya Janata Party’s national spokesperson on economic affairs

बड़ी आर्थिक चुनोतिया लेकिन चिंता की जरुरत नहीं

गोपालकृष्ण अग्रवाल

आर्थिक विषज्ञ

आज भारत की अर्थव्यवस्था को लेकर कई लोग बहुत चिंतित हैं। कोग्रेस की जाट के उपरांत वैश्विक स्तर पर कई देशों की अर्थव्यवरथा चरम गई है। कुछ देन अभी भी उस अवस्था से नहीं निकाल पाए है, लेकिन भारत उन कुछ देशों में शुमार है, जो अपनी आर्थिक स्थिति संभालने में सक्षम हो गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय वित्तीय संस्कार टिव बैंक एवं वित मंकेनेसह पर चालते हुए देश के आर्थिक विकासको सही पटरी पर ला दिया है। जना को जागरूकता, नेतृत्व के निर्णय में विश्वास और संकल्प का इसमें बड़ा योगदान है।

आज हमारी अर्थव्यवस्था विश्व में सबसे तेज गति से बढ़ रही है। हमारे सारे व्यापक आर्थिक पैमाने जैसे मुद्रा भहार, विदेशी पिवेशनांत में लगातार बढ़ोतरी मुई के और जीएसटी संग्रह भी लगातार बढ़ रहा है। हा माह नीएसटी संग्रह 1.5 लाख करोड़ से ज्यादा हो रहा है। प्रत्यक्ष कर के संग्रहण में भी 26 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

हमारी आर्थिक प्रगति में देश एवं विदेशी निवेशकों का विश्वास बरकरार है। वैसे आर्थिक जगत की कुछ महत्वपूर्ण चुनौतियां भी हैं। विश्व स्ता पर मुद्रास्त बहुत बढ़ रही है लेकिन यूरोप एवं अमेरिका के अनुपात में भारत इस चुनौती को बेहतर संभाली। भारत में मुद्रास्फीति ? प्रतिशत है। भारतीय रिजर्व बैंक एवं विस मंत्री ने संसद में कहा है कि हम इससे जल्द निपट लेंगे। कच्चे तेल की कीमत बहुत बढ़ गई है। समस्या यह है भारत 70 प्रतिशत तेल आयात करता है. जिससे हमारे रुपये की कीमत पर असर पड़ता है। सरकार रिजर्व बैंक के माध्यम से रुपये के मूल्य को भी निधारित कर की है। सरकार ताल की कीमत को रूस, ईरान से तेल आयात कर और आंतरिक रूप से वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत बढ़ाकर संभाल रही है। उपर अच्छी बात है कि अब कच्चे तेल के दाम लगातार घट रहे हैं, तो तेल आयात सस्ते भाव पर होने लगेगा।

पीएल आई के माध्यम से सरकार मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को समर्थन देकर घरेलू उत्पादन बढ़ा रही है, जिसके कारण हमारा निर्यात बढ़ रहा है। रक्षा क्षेत्र में भी सरकार ने घरेलू खरीद को बढ़ाकर 65 प्रतिशत कर दिया है। सरकार आधारभूत ढांचे जैसे एयरपोर्ट, सड़क, जल मार्ग, रेल मार्ग में महत्वपूर्ण निवेश कर रही है, जिससे बहुत लाभ हो रहा है। ईज ऑफ डुइंग बिजनेस और ईन ऑफ लिविंग के साथ बाजार में साल बड़े एवं उसके फलस्वरूप देश में निजी निवेश बढ़ जाए, तो इसका प्रभाव रोजगार के नए अवसर पैदा करने पर भी पढ़ेगा। बेरोजगारी एक बड़ी चुनौती है सरकारी विभागों में 10 लाख नियुक्तियों की घोषणा हुई है।

सरकारको जन-कल्याण योजनाएं भी कारगर साबित ही सही है। वित्त मंत्री एवं प्रधानमंत्री सही कहते हैं कि तमाम आर्थिक चुनौतियों के बावजूद अर्थव्यवस्था पटरी पर है औरराम आर्थिक संकटसे अच्छी तरह न्यूझ रहे हैं। हमारी आर्थिक स्थिति कई श्रीलंका, पाकिस्तान या बांगलादेश आदि देशों को तय नहीं है। देशका सामूसिंकाय एवं सफल नेतृत्व हमें स्वतंत्रता के अमृत महोलाय पर आने वाले अमृत काल के लिए मजबूत नीव प्रदान कर रहा है। भारत की अर्थव्यवस्था को और तेज गति से आगे बढ़ना है और विश्व पटल पर जी मंदी की मार पड़ की है, उसके प्रभाव से भी बचना है। इसके लिए कुछ महत्वपूर्ण आर्थिक सुधार हमें जल्दी ही करने पड़ेगे। इसमें महत्वपूर्ण है बिमाती उत्पादन एवं वितरण में प्रदेश स्तर पर मुफ्त बिजली देने से हो रहा घाटा इससे रोकना पड़ेगा। दुखद है, रेवड़ी के रूप में पंजाब जैरो कई प्रदेश बोट बटोरने के लिए पैसा चांटना चाहते हैं। इस प्रवृत्ति को जनता के व्यापक हित को ध्यान में रखते हुए रोकना पड़ेगा।

आर्थिक सुधार के तहत श्रम सुधार भी लाना है। कृषि क्षेत्र में व्यापक बदलाव को आवश्यकता है। अमेरिका, यूरोपीय देशों, ऑस्ट्रेलिया, संयुक्त अरब अमीरात से मुक्त व्यापार समझौता करने के लिए सरकार पहल कर रही है। सरकार जानती है कि अगर देश को विश्व में ऊंचा स्थान प्राप्त करना है, तो आर्थिक मजबूती आवश्यक है। सुधार के प्रयास लगातार चल रहे हैं। चुनौतियां अवश्य हैं. पर चिंता की जरूरत नाहीं।

तमाम आर्थिक चुनौतियों के बावजूद भारत की अर्थव्यवस्था सही पटरी पर है और हम आर्थिक संकट से अच्छी तरह जूझ रहे हैं।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Congress violated basic principles of tax, lost exemption

By Gopal Krishna Agarwal, 

The BJP on Friday reacted strongly to Congress allegations that the government is targeting it through tax notices and freezing of bank accounts.

“The I-T exemption that parties get is based on certain conditions. Congress has violated the basic condition mandated by EC for tax exemption,” BJP national spokesperson Gopal Krishna Agarwal told ET.

Agarwal said that Congress got cash donations above Rs 2,000, which is against the rule.

“The Congress received Rs 14.5 lakh in cash over Rs 2,000. These violations and late returns cost them their exemption under Section 13(A) of the I-T Act,” he stated.


Once a political party loses tax exemption, all its income becomes taxable and all expenditure under income from other sources is disallowed.

Agarwal further said the IT department issued several notices to Congress, but they didn’t respond.

“The notice of demand for Rs 135 crore tax given to Congress for the assessment year 2018-19 is after the party lost the exemption,” he added.

The BJP leader said that Congress filed an appeal before the Income Tax Appellate Tribunal but didn’t pay the mandatory 20% of the total liability required to hear the matter.

“Congress has gone to appeal in ITAT as well as High Court but all their appeals have been rejected. The matter is in the Supreme Court now,” Agarwal said.

He said that the Income Tax department’s action is based on the incriminating material seized during search operations which indicated extensive usage of cash by the party.

Gopal Krishna Agarwal is national spokesperson of the Bharatiya Janata Party on economic affairs.