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GKA THOUGHTS – Page 3 – Gopal Krishna Agarwal

चुनाव आयोग नियुक्ति कानून जरुरी ?

गोपाल कृष्ण अग्रवाल,

क्या सत्ता में बैठे लोगों को इतना भी अधिकार नहीं होना चाहिए कि वे योग्य व्यक्तियों को चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं में नियुक्त करें?  चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठाने वालों को हमारे चुनावों का इतिहास भी देखना चाहिए

चुनाव आयोग का स्वच्छंद होना इतना आसान नहीं

वैसे तो हर सिस्टम में सुथार की हमेशा गुंजाइश रहती है। लेकिन कोई बदलाव तब ही किया जाना चाहिए जब मौजूदा सिस्टम में कोई दोष नजर आ रहे हों। हमारे देश में चुनाव आयोग और इस जैसी दूसरी कई संस्थाओं का स्वतंत्र अस्तित्व है। यानी इनके कामकाज पर सस्कार का सीधे तौर पर कोई दखल नहीं है। चुनाव आयोग की बात करें तो उसे वित्तीय संसाधनों के लिए सरकार का मुंह नहीं ताकना पड़ता। आयोग के पास इसके लिए अलग से कोष होता है। इतना ही नहीं आयोग के पास व्यापक शक्तियां हैं जिससे वे चुनाव प्रयोजन के लिए किसी को भी निर्देशित व नियंत्रित कर सकता है। हमने यह भी देखा है कि चुनाव आयोग ने अपनी निष्पक्षता को सदैव प्रमाणित किया है। अब चुनाव आयुकों और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति कानून बनाकर निश्चित प्रक्रिया से करने की बातें हो यहीं है। इससे ऐसा लगता है कि हमारा चुनाव आयोग निव्यध नहीं है और आयोग के सदस्य व मुख्य निर्वाचन आयुक्त की चयन प्रक्रिया पर राजनीतिक आधार पर हो रही है। सवाल यह है कि क्या सत्ता में बैठे लोगों को इतना भी अधिकार नहीं होना चाहिए कि वे योग्य व्यक्तियों का चयन कर चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं में नियुक करें? 

जो लोग चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठा रहे है उनको हमारे चुनावों का इतिहास भी देखना चाहिए। टीएन शेषन के मुख्य चुनाव आयुक्त रहने के दौरान हुए चुनाव सुधार आज भी लोगों की जुबान पर है। उनका भी चयन सरकार ने ही किया था। 

फिर, हमारे देश में चुनाव आयोग के कामकाज पर नजर रखने के लिए पहले ही कई तंत्र मौजूद हैं। इनमें राजनीतिक दलों व मीडिया के साथ-साथ सबसे ऊपर न्यायपालिका भी है। हमें आपातकाल के पहले का दौर भी याद करना चाहिए जब श्रीमती इंदिरा गांधी के निर्वाचन को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अवैध करार दे दिया। तब भी चुनाव प्रक्रिया में गड़बड़ी के सवाल उठे थे। मेरा यह कहना है कि सरकारें भी निर्वाचन आयोग में नियुकियां श्रेष्हों में से सर्वश्रेष्ठ को छांटकर करती है। 

चुनाव आयोग के कामकाज में सस्कार का कहीं हस्तक्षेप होता हो ऐसा लगता नहीं है। उल्टे आयोग के पास सस्कारों को पाबंद करने की कई शक्तियां हैं। क्या कोई आज के दौर में यह सोच सकता है कि चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली पथपातपूर्ण होगी? जवाब होगा, कदापि नहीं। जैसा मैंने पहले ही कहा जिस देश में जागरुक राजनीतिक दल, सचेत मीडिया व प्रभावी न्यायपालिका हो वहां चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं का स्वच्छंद होना इतना आसान नहीं जितनी कि चर्चाएं की जा रहीं है। रही बात, चुनाव आयोग में नियुक्तियां कानून बनाकर करने की, मेरा मानना है कि फिलहाल इसकी आवश्यकता नहीं है क्योंकि आयोग में काबिल लोग तैनात है।

भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता,

देश और किसानों के हित में है नया विधेयक

गोपाल कृष्ण अग्रवाल,

सदस्य, भाजपा भूमि अधिग्रहण समिति ,

सरकार ने किसानों की हित को पूरी तरह संरक्षित करते हुए जटिलताओं को कम करने का काम किया है और इससे  सिर्फ विकास की प्रक्रिया तेज होगीबल्कि विकेंद्रीकरण होगा और ग्रामीण भारत विकास की प्रक्रिया में कदम ताल मिला कर चल सकेंगे

संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में देशहित में समय-समय प पर कानून बनाये जाते हैं, उनमें फेरबदल होता है. हमारे देश का विकास तभी संभव है, जब सभी राजनीतिक दल एक सकारात्मक बहस के द्वारा देश में बदलाव और विकास की आवश्यकता को। ध्यान में रखकर उसे आगे बढ़ायें और जो कानून भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को रोकने में सहायक। हो, उन्हें संसद में पास करायें. भूमि का सवाल और इसके अधिग्रहण से जुड़े मसले हमेशा से ही विवाद को जन्म देते रहे हैं. वर्तमान सरकार ने इसी विवाद को सुलइराने और अधिग्रहण की प्रक्रिया को चिना किसानों के हित को नुकसान पहुंचाये या यह भी कह सकते। हैं कि किसानों के हित में में भूमि अधिग्रहण बिल 2015 लेकर आयी. वर्ष 2013 के कानून में अध्यादेश के के जरिये कुछेक फेरबदल कर इसे विकास की प्रक्रिया के अनुकूल बनाने की कोशिश की.

विपक्ष किसानों की समस्याओं और उनके समाधान के प्रति तो सजग नहीं है और न ही आगे बढ़ना चाहता है, बल्कि किसानों की समस्याओं पर सिर्फ राजनीति की जा रही है. इस देश में किसानों की स्थिति क्या है, यह समाज के किसी भी तबके से छुपा हुआ नही है. किसान को उसके उत्पादन का पूरा मूल्य नहीं मिलता. न्यूनतम सर्मथन मूल्य की घोषणा सरकार द्वारा की जाती है, उसे प्राप्त करने के लिए भी किसान को स्थानीय स्तर पर भ्रष्टाचार का सामना करना पड़ता है. प्राकृतिक आपदा से उसकी फसल नष्ट हो जाती है. उसे समय रहते मुआवजा नहीं मिलता. उसको खाद और बीज की जरूरतें भी पूरी नहीं हो पाती. उसे पर्याप्त सब्सिडी नहीं मिल पाती, न ही उसके द्वारा उत्पादित अनाज को के संरक्षण की व्यवस्था है. उसे फसल बीमा का पूरा लाभ नहीं मिल पाता. नतीजा सामने है. इस देश में ऐसा माहौल बनता जा रहा है कि खेती लाभकारी नहीं है और किसान खेती के बजाय अन्य पेशे की ओर भाग रहा है. इन समस्याओं का समाधान क्या है?

समाधान यही है कि खेती को लाभकारी बनायें. कृषि भूमि पर दवाव कम हो. किसानों की बुनियादी आवश्यकता पूरी हो इस देश की लगभग 66 फीसदी आबादी कृषि पर निर्भर है जमीन के छोटे से टुकड़े पर परिवार के पूरे लोगों के भरण-पोषण का दबाव है 65 फीसदी आबादी देश के कुल घरेल घरेलू उत्पादन में मात्र 14 फीसदी का योगदान देती है जब तक यह भागीदारी 14 फीसदी से बढ़ कर 20-25 फीसदी तक नहीं पहुंचेगी, तबर तक नया रास्ता लिए वैकल्पिक रोजगार के संसाधन जुटाने होंगे ग्रामीण क्षेत्र में ही कुटीर उद्योग, लघु उद्योग, ग्राम आधारित उद्योग तैयार करना होगा ताकि लोगों को स्थानीय स्तर पर रोजगार मिले और पलायन में कमी हो यह तभी संभव हो पायेगा जब सरकार, विपक्ष और नागरिक संगठन किसानों की समस्या पर समग्रता में विचार करें नहीं निकलेगा. हमें 65 फीसदी आबादी के लिए वैकल्पिक रोजगार के संसाधन जुटाना होंगे ग्रामीण क्षेत्र में ही कुटीर उद्योग लघु उद्योग ग्राम आधारित उद्योग तैयार करना होगा ताकि लोगों को स्थानीय स्तर पर रोजगार मिले और पलायन में कमी हो यह तभी संभव हो पाएगा जब सरकार विपक्ष और नागरिक संगठन किसने की समस्या पर समग्रता में विचार करें.

भूमि अधिग्रहण विधेयक के द्वारा सारी समस्याओं का समाधान हो, ऐसा नहीं है यह विधेयक समस्या के एक ही पक्ष का समाधान करता है इसका उद्देश्य क्या है? इसका उद्देश्य है कि देश के आर्थिक ढांचे के विकास के लिए जो भूमि की आवश्यकता है, सरकार उसे अधिगृहीत कर सके सरकार जिसकी भूमि अधिगृहीत करती है, उसे उसका उचित मुआवजा मिले. यही नहीं, उस क्षेत्र में और भी जो काश्तकार हैं, जिनका रोजगार भूमि अधिग्रहण की वजह से छिनेगा, उनके वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था हो. उनके आवास, पुनर्स्थापन, और पुनर्व्यवस्थापन की व्यवस्था हो. सरकार जो भी भूमि अधिगृहीत करे, उसका उद्देश्य जनहित में हो. जब हम इन मापदंडों को सामने रखते हुए इस विधेयक को देखेंगे तो यह स्पष्ट होगा कि 2015 का भूमि अधिग्रहण विधेयक अपने उद्देश्यों में सफल हुआ कि नहीं. किसान मुआवजे की राशि से संतुष्ट है या नहीं. उनके पुनर्स्थापन और पुनर्व्यवस्थापन की व्यवस्था में तो कोई फेरबदल नहीं हुआ. किसानों की इसे लेकर कुछ समस्याएं थी, उन्होंने अपनी बात सरकार के सामने रखी और सरकार ने उन बातों को संशोधित बिल में समाहित भी किया.

कुछेक मामलों में बिल को बेहतर बनाया गया है. जैसे वर्ष 2013 के बिल में यह प्रावधान था कि भूमि अधिग्रहण के मामले में कोई विवाद होता है. उसे सिर्फ न्यायालय के जरिये ही निपटाया जा सकता है. जबकि इसमें यह भी व्यवस्था की गयी है कि इस समस्या के समाधान के लिए जिला स्तर पर ही ट्रिब्यूनल की स्थापना की जायेगी, जिसमें किसानों के प्रतिनिधि भी शामिल होंगे. इस तरह से विवादों का निपटारा जिले में ही संभव होगा इसका एक दूरगामी परिणाम देखने को मिल सकता है इसके साथ ही किसान यदि ट्रिब्यूनल के निपटारे से संतुष्ट नहीं है तो वह चाहे तो कोर्ट में भी जा सकता है जबकि ऐसा प्रचार किया जा रहा है कि किसान को अदालत जाने का अधिकार नहीं है एक और भ्रम फैलाया जा रहा है कि सरकार ने सहमति की आवश्यकता को खत्म कर दिया है वर्ष 2013 के बिल में ऐसे 12 क्षेत्र थे जिसमें खंड ड 2 2 के अंतर्गत और शेड्यूल 4 में भी भी शामिल किया गया था उसमें 13 ऐसे कानून थे जिसमें सरकार लगभग 70 से 80 फीसदी भूमि अधिगृहीत कर सकती थी इसमें वर्तमान सरकार ने सिर्फ 5 क्षेत्र और जोड़े हैं, जिनमें सरकार जनहित और देश की आवश्यकता के लिए जरूरी मानती है. सुरक्षा, गरीबों को आवास, आधारभूत संरचना का विकास, ग्रामीण विद्युतीकरण, ग्रामीण क्षेत्र में सिंचाई के साधान और इंडस्ट्रियल कॉरीडोर. बाकी चीजों के लिए सहमति की आवश्यकता अब भी बनी हुई है. कहा जा रहा है कि सरकारी कर्मचारी के खिलाफ शिकायत करने का अधिकार इस नये बिल में खत्म किया गया है, जबकि संशोधित विधेयक में भी भारतीय दंड संहिता की धारा 197 के तहत ये प्रक्रिया सुनिश्चित की गयी है कि वे सरकारी कर्मचारी के खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकते हैं किसी प्रोजेक्ट के पांच वर्ष की अवधि में शुरू न होने पर किसानों को भूमि वापसी का अधिकार पहले के बिल में था इस नये विल में भी यह अधिकार है सिर्फ समयावधि में थोड़ा फेरबदल किया गया है कुछ प्रोजेक्ट ऐसे हैं, जिसमें पांच वर्ष से ज्यादा का समय लगता है, उनके अंतर्गत यदि समयावधि के भीतर प्रोजेक्ट नहीं लगता है, तो भूमि किसानों को वापस करना था. 

किसानों को पांच साल की के बाद भ बाद भी मुआवजा मिलेगा, यह प्रावधान अब भी है, सिर्फ यह फेरबदल किया गया है कि यदि मामले में अदालत ने स्थगनादेश दिया है तो इस काल के समय में पांच साल और जोड़ दिया जायेगा, इस समय के पूरे होने नये रेट से मुआवजा मिलेगा. इस बिल में भी है कि आदिवासी और वनवासी भूमि पर यह नया कानून लागू नहीं होगा, बल्कि आदिवासी अधिकार कानून ही लागू होगा, पीपीपी और इंडस्ट्रियल कॉरीडोर को लेकर भ्रम फैलाया जा रहा है यह कॉरीडोर राष्ट्रीय राजमार्ग और रेलवे लाईन के दोनों ओर एक किलोमीटर के दायरे की भूमि ली जानी है. एक किलोमीटर के दायरे में कोई बड़ा प्रोजेक्ट नहीं लग सकता जबकि पब्लिक प्राईवेट पार्टनरशिप के लिए जिस जमीन का अधिग्रहण सरकार बिना सहमति के करेगी, उस प्रोजेक्ट का मालिकाना हक सरकार के पास होगा यदि सरकार भूमि का हस्तांतरण करना चाहती है तो उसे सहमति की जरूरत होगी.

इन सब बिदुओं पर गौर करेंगे, तो यही तथ्य सामने आता है कि सरकार ने किसानों की हित को पूरी तरह संरक्षित करते हुए जटिलताओं को कम करने का काम किया है और इससे न सिर्फ विकास की प्रक्रिया तेज होगी, बल्कि विकेंद्रीकरण होगा और ग्रामीण भारत विकास की प्रक्रिया में कदम ताल मिला कर चल सकेंगे.

नोटबंदी से इकॉनमी को नई दिशा

गोपाल कृष्ण अग्रवाल,

नोटबंदी ने देश के आर्थिक परिदृश्य में भारी हलचल पैदा कर दी है। आज इस पर बहस चल रही है कि क्या इससे भ्रष्टाचार और काले धन को समाप्त करने में मदद मिल सकेगी? इसका अर्थव्यवस्था पर तात्कालिक और दीर्घकालिक क्या असर पड़ेगा, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में। छोटे, लघु एवं मध्यम उद्योग इससे किस तरह प्रभावित होंगे? छोटे व्यापारियों, दुकानदारों और दैनिक मजदूरों आदि पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? और भी कई प्रश्न उठ रहे हैं।

सरकार देश के आर्थिक विकास के प्रति प्रतिबद्धता के साथ सामने आई थी। भ्रष्टाचार एवं काले धन पर रोक के लिए इस सरकार को जनादेश मिला था। इसलिए वर्तमान अर्थतंत्र के महत्वपूर्ण पहलुओं को ध्यान में रखकर सरकार अपनी रणनीति तैयार कर रही है।

आम आदमी के लिए

यह एक गलतफहमी है कि देश का हर नागरिक कर नहीं देता। प्रत्येक नागरिक अप्रत्यक्ष करों के रूप में टैक्स अदा कर रहा है, पर यदि इस ट्रांजैक्शन को समुचित रूप से खाते में न डाला जाए तो यह कर सरकार के खजाने में नहीं पहुंचता। इस व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए लेन-देन संबंधी ट्रांजैक्शन की बैंकिंग प्रणाली में रिकॉर्डिंग बहुत आवश्यक है। नोटबंदी का उद्देश्य इसी परिदृश्य को ठीक करना है। सरकार का मकसद है अर्थव्यवस्था में पारदर्शिता लाकर सभी को विकास के समान अवसर प्रदान करना।

सत्ता में आने के दूसरे दिन ही सरकार ने सबसे पहले एसआईटी का गठन किया ताकि भ्रष्टाचार मिटाने के लिए नए उपाय किए जा सकें। फिर विदेशी अवैध परिसंपदा घोषणा योजना को लागू किया गया ताकि विदेशों में जमा अवैध संपत्ति को रोका जा सके। साथ में मॉरीशस, साइप्रस और सिंगापुर के साथ द्विपक्षीय कर संधियों के पुनर्निर्धारण द्वारा अधिकांश हवाला कारोबार रोकने के लिए कदम उठाया। अमेरिका के साथ वित्तीय सूचना साझा करने के लिए नई संधि की गई। उसी प्रकार ओईसीडी और जी-20 देशों के साथ वित्तीय सूचना का आदान-प्रदान करने के लिए मोदी जी ने नई पहल की। देश के अंदर के कालेधन को मुख्यधारा में लाने के लिए इनकम डिस्क्लोजर स्कीम (आईडीएस) लाई गई। भ्रष्टाचार रोकने के लिए बेनामी संपत्ति पर शिकंजा कसना जरूरी था। इसलिए बेनामी परिसंपत्ति कानूनों के प्रावधानों को पारित किया गया जो कि पिछले दस वर्षों से लंबित पड़े थे।

काले धन की लड़ाई में नोटबंदी एक बड़ी योजना का हिस्सा है। यह देश के सभी हिस्सों में आम आदमी के आर्थिक विकास का एक महत्वपूर्ण जरिया है।सरकार विभिन्न योजनाओं के जरिए आने वाले समय में हमारी अर्थव्यवस्था में कई सुधार लाएगी। देश में भारी मात्रा में कैश करंसी के सर्कुलेशन के कारण आवास महंगे हो गए थे। आम आदमी का घर का सपना उसके हाथों से फिसलता जा रहा था। नोटबंदी से सभी प्रकार की महंगाई कम होगी। सरकार को अधिक संसाधन प्राप्त होंगे जिसका इस्तेमाल वह गरीबों और अल्प आय ग्रुपों को राहत देने के लिए तथा विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में आधारभूत ढांचे के विकास के लिए करेगी। नोटबंदी की बदौलत हम कम ब्याज दर वाली अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ रहे हैं।

और जीएसटी को कैसे भूल सकते हैं? जीएसटी से अप्रत्यक्ष करों को कम करने में मदद मिलेगी। इसके सुचारू कार्यान्वयन के लिए भी ढांचा तैयार हो गया है। नकली करंसी का चलन अर्थव्यवस्था से हटाया गया है जिससे आतंकवादी, माओवादी और लूट-खसोट जैसी आपराधिक गतिविधियों पर लगाम लगायी जा सके।

नोटबंदी से बैंकों के चालू खाते और बचत खातों में जमाधन की वृद्धि हुई है। इससे बैंकों के पास जमा धन की कीमत कम हो गई है परिणामस्वरूप बैकों ने ब्याज दर में कमी की है। ऑनलाइन भुगतान तथा मोबाइल बैंकिंग द्वारा जो ट्रांजैक्शन होता है उसकी लागत प्रति ट्रांजैक्शन काफी कम बैठती हैं। इसका फायदा अर्थव्यवस्था को तुरंत ही मिलेगा। ऑनलाइन भुगतान के लिए कई तरह की छूट दी जा रही हैं। लोगों द्वारा बड़े पैमाने पर कर देने के कारण ही तीसरी तिमाही की कर रिपोर्ट में अप्रत्यक्ष कर संग्रह में 26 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और प्रत्यक्ष कर संग्रह में 15 प्रतिशत की। अभी काले धन के संचालन के कारण अर्थव्यवस्था में कई विसंगतियां आ गई हैं जिन्हें दूर करने का प्रयास तभी पूर्ण सफल होगा जब लोग पुराने कालेधन को नई करंसी में कन्वर्ट न कर सकें। इसीलिए सरकार कुछ कठोर नियमावलियां ला रही है।

अगला रोडमैप तैयार

सरकार करंसी की आवाजाही की कमी से पूर्ण रूप से अवगत है, पर इसे जल्द सुलझाया जा रहा है। लोगों से आग्रह किया जा रहा है कि ऑनलाइन भुगतान और मोबाइल बैंकिंग को अपनाएं। इसके लिए जागरूकता पैदा की जाएगी। इन्हें अनिवार्य नहीं किया जाएगा। सरकार सिस्टम में कैश करंसी खत्म नहीं कर देगी, पर उसे जीडीपी के 8 से 9 प्रतिशत तक रखने का लक्ष्य है। सरकार इस बात से भली-भांति अवगत है कि करंसी की इस कमी का प्रभाव देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ सकता है। इसीलिए उसके पास जीडीपी के विकास और अर्थव्यवस्था को सशक्त बनाने का अगला रोडमैप तैयार है। देश में बड़े आर्थिक सुधारों के लिए आवश्यक है कि हम डिजिटल अर्थव्यवस्था की नई क्रांति की तरफ बढ़ें।

लेखक बीजेपी के आर्थिक मामलो के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं।

सरकार की कल्याणकारी घोषणाओं में बुराई क्या है ?

गोपाल कृष्ण अग्रवाल,

ऐसा तो नहीं है कि सरकार ने बजट पेश करने की परंपरागत तिथि में ऐन पहले बदलाव किया है। बजट को अब तक के समय से पहले पेश करने की यह प्रक्रिया काफी समय पहले से चल रही थी। इसके पीछे मंशा भी यह रही है कि बजट पेश होने के बाद एक अप्रैल से शुरू होने वाले वित्तीय वर्ष के पहले सरकार की घोषणाओं के मुताबिक आवंटित बजट संबंधित विभागों के पास पहुंच जाए। अब तक यह होता था कि बजट पास करने की प्रक्रिया में देरी की वजह से आवंटित किया गई धनराशि समय पर नहीं पहुंच पाती थी। इसकी वजह से विकास योजनाओं के शुरू करने और इनके पूरे होने में देरी होती थी। अब एक फरवरी को ही बजट पेश होने पर सरकार के पास पर्याप्त समय मिल जाएगा। 

जैसा कि मैंने बताया कि यह प्रक्रिया काफी समय से चल रही थी और सरकार ने बजट को फरवरी के अंत के बजाए पहले ही पेश करने के बारे में चुनाव आयोग को पहले बता भी दिया था। चुनाव आयोग ने चुनाव कार्यक्रम की घोषणा इसके बाद की है। वैसे भी जिस तरह से चरणों में मतदान कराया जा रहा है उसके चलते बीच में मतदान तिथियों का आना स्वाभाविक था। इसे किसी पार्टी विशेष को चुनाव में फायदा पहुंचाने की मंशा से जोड़कर देखा जाना उचित नहीं कहा जा सकता। होना तो यह चाहिए कि बजट को परंपरागत समय से पहले पेश करने का स्वागत किया जाता।

वैसे भी बजट पेश करना किसी भी सरकार का संवैधानिक दायित्व है और भारत सरकार इसी दायित्व की पालना कर रही है। रेल बजट को आम बजट में समायोजित करने का काम भी सरकार की इसी मंशा का हिस्सा है ताकि सभी को बजट घोषणाओं के हिसाब से विकास कार्य शुरू करने का पूरा समय मिल सके। एक बात यह भी है कि बजट कब पेश किया जाए यह सरकार का अधिकार है। चुनाव आयोग के क्षेत्राधिकार में सिर्फ समय पर और निष्पक्ष चुनाव कराना होता है। मतदान तिथियों के बीच बजट पेश होने का विपक्ष जो विरोध कर रहा है उसका कोई औचित्य नहीं है। 

कोई भी सरकार जनकल्याण के काम करने के लिए ही होती है। ऐसे में स्वाभाविक है कि वह जनता के हितों से जुड़े हुए काम करती है। विपक्ष को डर है कि चुनाव में लोकलुभावन घोषणाओं के जरिए मतदाताओं को केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी को फायदा मिल सकता है। 

सरकार वैसे कोई भी अच्छा काम इसलिए करती है ताकि जनता के बीच उसके कामकाज का संदेश बेहतर जाए। हां, बजट घोषणाओं का साइड इफैक्ट हो सकता है लेकिन इसमें भला गलत क्या है? क्या कुछ कठोर फैसलों को घोषणाएं करने का नुकसान नहीं हो सकता? जो लोग सरकार के इस जनहितकारी फैसले का विरोध कर रहे हैं वे सिर्फ विरोध के लिए ही विरोध कर रहे हैं। उनके पास अपनी बात कहने का उनके पास कोई ठोस आधार नहीं है।

सरकार ने बजट को फरवरी के अंत के बजाए इस माह के शुरू में पेश करने के बारे में चुनाव आयोग को पहले ही बता भी दिया था। चुनाव आयोग ने चुनाव कार्यक्रम की घोषणा इसके बाद की है

आर्थिक मामलो पर भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता 

भाजपा के संकल्प पत्र पर गोपाल कृष्ण अग्रवाल जी का विचार

महज चुनावी चिंता नहीं, सशक्त राष्ट्र का रोडमैप

भारतीय जनता पार्टी द्वारा जारी संकल्प पत्र न केवल पार्टी की पांच साल की उपलब्धियों का लेखा-जोखा है बल्कि भारत को सशक्त राष्ट्र की हैसियत तक पहुंचाने का रोडमैप भी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे जारी किए जाने के मौके पर कहा कि 130 और कौशल करोड़ भारतीयों की शक्ति और के बलबूते और जन भागीदारी के साथ हमने अवरोधों को अवसरों में बदला है। जिन मोर्चों पर बीजेपी कामयाब रही है, उनमें सबसे प्रमुख है महंगाई दर जो पिछली सरकार में 9 फीसद से ऊपर थी और अभी 3 प्रतिशत से कम है। 

2019 के संकल्प पत्र में जिन विषयों पर सरकार ने सबसे ज्यादा जोर दिया है, उनमें सबसे ऊपर है आतंकवाद को लेकर जीरो टॉलरेंस की नीति। इसी से जुड़ा हुआ मामला घुसपैठियों का है, जिसने देश में सांस्कृतिक और भाषाई परिवर्तन किया है। इसे रोकने के लिए चरणबद्ध तरीके से एनआरसी को देशभर में लागू किया जाएगा। बीजेपी ने अपने संकल्प में नागरिकता संशोधन बिल पर पुरानी प्रतिबद्धता जताई है। जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रीय हित के खिलाफ भेदभावपूर्ण दृष्टिकोण वाले अनुच्छेद 35 ए को खत्म किया जाना और अनुच्छेद 370 पर कटिबद्धता भी इसका हिस्सा है।

प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना अपने आप में एक ऐसा कार्यक्रम है जिसे विश्व स्तर पर सराहा जा रहा है। इसके तहत 10.74 करोड़ गरीब परिवारों को 5 लाख का वार्षिक स्वास्थ्य कवर उपलब्ध कराया गया है। इसके साथ ही 2022 तक डेढ़ लाख ‘स्वास्थ्य और कल्याण केंद्र’ स्थापित करने की बात संकल्प पत्र में है। अभी 17,150 ‘स्वास्थ्य और कल्याण केंद्र काम करने लगे हैं। देशभर के लोकसभा और विधानसभा के चुनावों को एक साथ कराए जाने के वायदे पर बीजेपी कायम है। सुपर कंप्यूटर, आर्टिफिशल इंटेलिजेंस और क्वांटम मिशन भारत को इंडस्ट्री 5.0 के लिए तैयार करेंगे जिससे सभी संसाधनों का सतत उपयोग किया जा सके। मिशन शक्ति के बाद अगला लक्ष्य गगनयान का प्रक्षेपण है।

संकल्प पत्र में तीन तलाक, निकाह हलाला जैसी प्रथाओं के उन्मूलन के लिए कानून पारित करने की बात भी है। – संविधान में प्रावधान के जरिये संसद और राज्य विधानसभाओं – में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने के लिए बीजेपी प्रतिबद्ध है। 

गरीबी रेखा के नीचे के परिवारों के प्रतिशत को अगले 5 वर्षों में दहाई से इकाई में लाने का लक्ष्य रखा गया है। महिलाओं को रोजगार में ज्यादा से ज्यादा बढ़ावा देने के लिए 10 प्रतिशत सरकारी खरीदारी सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्योगों से की जाएगी, जिनकी 50 प्रतिशत कर्मचारी महिलाएं होंगी। 2022 तक कच्चे घर में रहने वाले सभी लोगों को पक्का घर दिया जाएगा। जहां तक किसानों का प्रश्न है, उनको लेकर बीजेपी की एक व्यापक योजना है जिसमें सभी के लिए प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना, छोटे और सीमांत किसानों के लिए पेंशन, कृषि-ग्रामीण क्षेत्र में 25 लाख करोड़ रुपये का नया निवेश और ब्याज मुक्त किसान क्रेडिट कार्ड ऋण शामिल हैं।

अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए सभी संभावनाओं की तलाश, भाषाओं और बोलियों के लिए कार्यबल, गंगा की निर्मलता और अविरलता, सबरीमाला को लेकर आस्था- विश्वास को संवैधानिक संरक्षण तथा योग के प्रचार-प्रसार के लिए संकल्पपत्र में प्रतिबद्धता दोहराई गई है। बीजेपी का यह भी मानना है कि बिना समान नागरिक संहिता के लैगिक समानता कायम नहीं की जा सकती और एक नीति निर्देशक सिद्धांत के रूप में यह संविधान में भी दर्ज है।

सुपर कंप्यूटर, आर्टिफिशल इंटेलिजेंस और क्वांटम मिशन भारत को इंडस्ट्री की पांचवी पीढ़ी के लिए तैयार करेंगे

जी. के. अग्रवाल

विपक्ष की ओछी राजनीति

गोपाल कृष्ण अग्रवाल,राष्ट्रीय प्रवक्ता, भाजपा।

चुनाव के हालिया दौर में और उससे पहले भी बीते चार-पांच वर्षों से विपक्ष केंद्र सरकार पर सरकारी संस्थानों को कमजोर करने का आरोप लगाता रहा है जिसे निराधार कहा जा सकता है

लोकतांत्रिक व्यवस्था में विपक्ष की, शासक दल पर नियंत्रण रखने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। विपक्ष की जीवंतता समाज के राजनीतिक एवं लोकतांत्रिक विकास का मापदंड होती है। लोकतंत्र के उद्देश्यों को संसद, न्यायपालिका और चुनाव आयोग जैसे विभिन्न संस्थानों के माध्यम से ही पूरा किया जाता है। मजबूत, स्वतंत्र और विश्वसनीय संस्थानों के बलबूते हो लोकतांत्रिक व्यवस्था फलती-फूलती है। लोकतंत्र में विश्वास करने वालों को उन संस्थानों का पोषण करना होता है जिसका विकास कई पीढ़ियों के अथक परिश्रम से हुआ है। संस्था, महान नेताओं के पदचिन्हों तथा संस्थापकों के सामूहिक ज्ञान को संजोए रखती है। इन सभी संस्थाओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी सामूहिक रूप से सरकार और विपक्ष दोनों की होती है।

हाल के समय में, विपश्च ने लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई नरेंद्र मोदी सरकार के प्रति अपनी नफरत के चलते इन संस्थानों को कमजोर करने की कोशिश की है। आजादी के बाद सबसे अधिक समय सत्ता में रही कांग्रेस ने विभिन्न संस्थानों में वामपंथी और अति- वामपंथी विचारधारा वाले लोगों को स्थान दिया। वरिष्ठ मंत्री अरुण जेटली सही कहते है कि कांग्रेस ने ‘व्यवस्था को भीतर से खत्म करने’ के मार्क्सवादी सिद्धांत का अनुपालन किया। चुनावी प्रक्रिया से जनप्रतिनिधि तो बदल जाते हैं, लेकिन ये संस्थागत व्यक्ति नहीं बदलते। वर्तमान में संस्थानों को अस्थिर करने वाले ऐसे सभी लोग एकजुट हो रहे हैं।

ऐतिहासिक रूप से भारत में हमेशा से ही एक मजबूत और मुखर विपक्ष रहा है। यहां तक कि कांग्रेस के चरमोत्कर्ष के दौरान भी यही स्थिति थी। उदाहरण के लिए, आपातकाल के समय लोकतंत्र की रक्षा के लिए विपश्न ने बेहद अहम भूमिका निभाई थी। लेकिन वर्ष 2014 से सरकार पर लगातार हमले करते हुए विपक्ष इतना अंधा हो गया कि वह राजनीतिक पार्टी, सरकारी कार्यकारी और स्वतंत्र संस्थानों के बीच का अंतर करने में भी विफल रहा है। ये हमले केवल संस्थानों तक ही सीमित नहीं थे, वल्कि इन संस्थानों के प्रमुखों को भी निशाना बनाया गया है। उच्चतम न्यायालय पर विपक्ष का हमला सबसे ज्यादा निंदनीय है। विपक्षी दलों ने पिछले पांच वर्षों में कई मामलों में उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है। 

जब भी फैसला उनके पक्ष में आया उन्होंने न्यायालय की प्रशंसा की, पर जब तो भी उनकी अर्जी खारिज की गई तो वे उच्चतम न्यायालय पर हमला करने के लिए एकजुट हो गए। न्यायाधीशों को खुलेआम डराने-धमकाने के प्रयास किए गए। भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश पर सरकार के पक्ष में फैसले देने के आरोप लगाए गए। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों द्वारा 12 जनवरी 2018 को की गई संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस, जो न्यायालय के आंतरिक कामकाज से संबंधित थी, का उपयोग करते हुए विपक्ष ने ये दर्शाने की कोशिश की कि ये सभी न्यायाधीश भाजपा सरकार के खिलाफ विद्रोह कर रहे हैं।

भारतीय रिजर्व बैंक भी विपक्ष की चपेट में आ चुका है। जब यह स्पष्ट हो गया था कि गवर्नर के रूप में रघुराम राजन का कार्यकाल नहीं बढ़ाया जाएगा तो विपक्षी दलों ने दावा किया कि विदेशी निवेशक भारतीय वित्तीय बाजार से पैसा निकाल लेंगे और रुपये का तेजी से अवमूल्यन होगा। एक व्यक्ति को पूरे संस्थान से वड़ा बनाने की कोशिश की गई, सिर्फ इसलिए क्योंकि कुछ मुद्दों पर वह केंद्र सरकार के खिलाफ नजर आ रहे थे और वार-वार सार्वजनिक मंचों पर बोल रहे थे। जब नोटबंदी की घोषणा की गई तो यह आरोप लगाया गया कि सरकार ने आरबीआइ के अधिकारों को नजरअंदाज किया है। तत्कालीन आरवीआइ गवर्नर उर्जित पटेल पर भी आरोप लगाए गए थे।

देश के सशस्त्र बलों को भी विपश्च ने नहीं बख्शा जो सदैव अपने पेशेवर रवैये के लिए जाने जाते हैं। जब भारतीय सेना ने यह घोषणा की थी कि उसने उड़ी में हुए आतंकी हमले के जवाव में कश्मीर में नियंत्रण रेखा के पार जाकर सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम दिया है, तो विपश्व ने उसके लिए साक्ष्य मांगे, उन्हें चिंता थी कि कहीं सरकार को श्रेय न मिल जाए। वालाकोट में आतंकी शिविरों पर की गई एयर स्ट्राइक के बाद भी इसी तरह की प्रतिक्रियाएं आई। विपक्ष की प्रतिक्रियाएं और पड़ोसी देश की प्रतिक्रियाओं में काफी समानता थी।

चुनी हुई भाजपा सरकार को नीचा दिखाने के लिए पूरी चुनाव प्रक्रिया को अमान्य करार देने का सबसे बड़ा और भयावह हमला भारत के चुनाव आयोग और इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों पर किया जा रहा है। चुनावों के निष्पक्ष संचालन के लिए भारतीय चुनाव आयोग की दुनिया भर में प्रशंसा होती है। लेकिन जब भी विपक्षी दल चुनाव हार जाते हैं तो जनता के फैसले को विनम्रता के साथ स्वीकार करने की बजाय, वे चुनाव आयोग पर दोष मढ़ने लगते हैं और ईवीएम के हैक किए जाने का राग अलापने लगते हैं। 

चुनाव आयोग ने उनके सवालों का जवाब देने की पूरी कोशिश की, यहां तक कि ईवीएम को हैक करने की खुली चुनौती भी दी, लेकिन विपक्ष संतुष्ट नहीं हुआ। जब इन पार्टियों से वह पूछा जाता है कि केंद्र में पहली वार भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार कैसे बन गई जबकि पूर्ववर्ती सरकार कांग्रेस के नेतृत्व वाली थी या फिर 2015 में दिल्ली और बिहार में हुए विधानसभा चुनावों और हाल ही में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में भाजपा कैसे हार गई तो इन नेताओं के पास कोई जवाब नहीं है।

जरा सोचिए कि एक दुश्मन देश और उसके मीडिया द्वारा ये कहना कि भारत में हुए चुनावों में बड़े पैमाने पर धांधली हुई, इसका अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत सरकार की साख पर कैसा प्रभाव पड़ेगा। विपक्ष को यह समझना होगा कि वह देश की स्वतंत्र संस्थाओं को कमजोर करके लोकतंत्र में अपनी सही भूमिका नहीं निभा सकता। कुछ चीजों को रोजमर्रा की छोटी राजनीति से दूर रखना चाहिए। देश के महत्वपूर्ण संस्थानों को कमजोर करके उन्हें अल्पकालिक राजनीतिक लाभ तो हो सकता है, लेकिन दीर्घकालिक दृष्टि से देखें तो वे हम सबके लिए विनाशकारी सावित होगा।

सेना से ज्यादा आतंकवादियों के मानवाधिकार की चिंता

गोपाल कृष्ण अग्रवाल,राष्ट्रीय प्रवक्ता, भाजपा।

अपने चुनावी घोषणापत्र में कांग्रेस ने कहा है कि अगर वह सत्ता में आती है तो जम्मू-कश्मीर में सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम (आफ्रया) पर मानवाधिकारों के मद्देनजर पुनर्विचार करेगी। शायद कांग्रेस को सेना से ज्यादा आतंकवादियों के मानवाधिकारों की चिंता है। कांग्रेस जी. के. अग्रवाल यह नजरअंदाज कर रही है कि इसका कितना बुरा असर सेना के जवानों के कार्य पर पड़ेगा जो वहां आतंकवादियों के साथ हर रोज सीधा मुकाबला करते हैं। इस कानून में कोई भी छेड़छाड़ पाकिस्तान की तरफ से चलाए जा रहे छग्य युद्ध में सेना को कमजोर ही करेगी। कांग्रेस का आतंकवादियों, अलगाववादियों और देशविरोधी शक्तियों के प्रति हमेशा से सहानुभूतिपूर्ण रवैया रहा है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने टाडा हटाया, बाद की कांग्रेस सरकार द्वारा पोटा हटाया गया।

इसी तरह कांग्रेस द्वारा भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए से राजद्रोह के प्रावधान को हटाए जाने का वादा देश के अंदर चुन की तरह लगी राष्ट्रविरोधी ताकतों को समर्थन और मजबूती देना है। इससे माओवाद और उन्हें समर्थन देने वाले छद्म प्रबुद्ध वर्ग के विरुद्ध संघर्ष कमजोर होगा। सीआरपीसी के तहत भी अभियोगाधीन आपराधिक मामलों में जमानत की बात इसी श्रृंखला की कड़ी है। अपने घोषणापत्र में कांग्रेस कोई मजबूत आर्थिक नीति नहीं प्रस्तुत कर पाई है। जिस ‘न्याय’ योजना की बात वह कह रही है, उसके लिए जरूरी संसाधन जुटाने को लेकर उसके पास न तो जवाब है और न ही भविष्य की कोई रणनीति। कांग्रेस 72000 करोड़ रुपये की आर्थिक योजना के लिए मध्यवर्ग पर कर का और ज्यादा बोझ डालने की बात कर रही है। इसके लिए वह कितनी अन्य योजनाओं को निरस्त करेगी, यह अभी नहीं बता रही। इसका बोझ प्रदेश सरकारें भी वहन करेगी। बिना उनकी सहमति के केंद्र यह घोषणा नहीं कर सकता।

किसानों की समस्याओं को लेकर क्या रोडमैप है, कुछ नहीं बताया गया। अलग किसान बजट की घोषणा करने से क्या होगा, स्पष्ट नहीं है। वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) को लेकर भी कांग्रेस एक रेट की बात करके आम जनता पर बोझ ही बढ़ाएगी। क्या शराब और खाद्यान्न पर एक ही टैक्स होना चाहिए? बीजेपी ने जीएसटी के अंतर्गत आम

जनता की आवश्यकता की वस्तुओं पर टैक्स दर काफी कम की है जो कांग्रेस बदलना चाहती है। 22 लाख सरकारी नौकरियों की संख्या बेमानी है। केंद्र में केवल 4 लाख नौकरियां है और सरकारी उद्यमों में केंद्र किसी को रखवा नहीं सकता। रोजगार की समस्या का यह कोई समाधान नहीं है। कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में कहा है कि वह न्यायपालिका व्यवस्था में व्यापक बदलाव करेगी। उसकी योजना है कि एक बिल लाकर सुप्रीम कोर्ट को संवैधानिक अदालत में बदल दिया जाए और एक अपीलीय अदालत का निर्माण करके हाई कोटों में फैसला पा चुके मामलों को सुना जाए। ऐसी व्यवस्था का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि सारे मामले अंततः सुप्रीम कोर्ट में ही आकर समाप्त होंगे। इस नए प्रावधान से न्याय प्रक्रिया लंबी और जटिल हो जाएगी।

कांग्रेस हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए न्यायिक आयोग स्थापित करना चाहती है। ऐसा कोई भी प्रावधान न्यायपालिका में हस्तक्षेप जैसा होगा। कांग्रेस कानून बदलेगी और प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया से कहेगी कि पत्रकारों के लिए कोड ऑफ कंडक्ट लाए। यह पत्रकारों की स्वंतत्रता पर सीधा प्रहार होगा। बिना व्यापक विमर्श के यह खतरनाक होगा। आज हजारों अखबार, न्यूज चैनल और वेबसाइट हैं जिनकी पहुंच वैश्विक है। बहुत सी चीजें सेल्फ रेगुलेटरी होती जा रही हैं। कांग्रेस को समझना चाहिए कि लोकतंत्र में मीडिया की स्वतंत्रता कितनी महत्वपूर्ण होती है। पार्टी को उन चीजों से दूर रहने की जरूरत है जो देश हित में नहीं हैं।

जिसन्याययोजना की बात कांग्रेस कह रही है, उसके लिए संसाधन जुटाने उसके पास कोई को लेकर जवाब नहीं है

किसानों को गुमराह करने में बिचौलियों का हाथ

पिछले 15 दिनों से कृषि कानूनों को लेकर आंदोलन कर रहे किसान अपनी मांग पर अडिग है। पांच बार सरकार की ओर से वार्ता की गई मगर वार्ता विफल रही। किसानों के आंदोलन से नोएडा दिल्ली, गुड़गांव, फरीदाबाद, गाजियाबाद, रोहतक, बहादुरगढ़ आदि इलाकों के उन लोगों को दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। जो नौकरी करने के लिए यहां से आते जाते हैं। किसान आंदोलन कब खत्म होगा और किसानों की मांग मानी जाएगी या नहीं और इस कानून को लेकर जय हिंद जनाब ने भाजपा प्रवक्ता गोपाल कृष्ण अग्रवाल से बातचीत की।

 जय हिंद जनाब को गोपाल कृष्ण अग्रवाल ने बताया कि सरकार किसानों के कई प्रस्तावों पर अमल करने को तैयार है लेकिन जिस तरह कि किसान अब मांग कर रहे हैं। वह सब मांगे मानना उचित नहीं है। श्री अग्रवाल ने कहा कि किसान आंदोलन में बिचौलिए यानी आढ़ती आग में घी डालने का काम कर रहे हैं। सबसे ज्यादा नुकसान बिचौलियों का हो रहा है। किसानों की आय बढ़ाने के लिए सरकार ने कृषि कानून बनाए हैं। मगर इस कानून का असर किसानों पर उतना नहीं पड़ रहा जितना बिचौलियों पर पड़ रहा है। 

श्री अग्रवाल ने कहा कि हरियाणा और पंजाब ऐसे राज्य हैं जहां गेहूं और चावल का 90 प्रतिशत होती है। एमएसपी पर यह दोनों फसल खरीदी जाती हैं। सरकार एमएसपी पर 4 लाख करोड रुपए खरीदने के लिए निर्धारित करती है। जिसका 60 प्रतिशत इन दोनों राज्यों में ही जाता है जबकि शेष 40 प्रतिशत पर पूरे देश में सरकार खरीददारी करती है। उन्होंने कहा कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को लेकर जो भ्रम फैलाया जा रहा है।

 वहीं है कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से किसानों की जमीन किसी भी निजी व्यक्ति के हाथ में नहीं जाएगी। बल्कि प्राइवेट कंपनियों के लिए कई ऐसे क्लोज लगाए गए हैं। जिससे किसानों को ही फायदा होगा। एग्रीमेंट से किसान बाहर जा सकता है और कंपनी उसको किसी भी तरह से फोर्स नहीं कर सकती। एसडीएम और डीएम स्तर पर सुनवाई का क्लोज सरकार हटाने को तैयार है। उन्होंने कहा कि जो किसान अपने राज्य से बाहर वाली मंडियों में अपनी उपज बेचना चाहते हैं। उनके लिए मंडी टैक्स माफ का भी प्रावधान है। श्री अग्रवाल ने दावा किया कि अघोषित रूप से भारतीयों ने विभिन्न किसानों को करीब 40 हजार करोड रुपए का ऋण दिया हुआ है। जिसकी मजबूरी के चलते किसान आंदोलन कर रहा है। उन्होंने कहा कि देश भर में 7 हजार मंडियां है जबकि पूरे देश में इस वक्त 30 हजार मंडियों की जरूरत है। 

सरकार ने किसानों के लिए वैकल्पिक मंडी का रास्ता खुला है ताकि बिचौलियों का कब्जा ना हो सके। उन्होंने उदाहरण दिया कि धान 1950 रुपए है इस कीमत पर 15 प्रतिशत किसानों से राज्य सरकार एमएसपी पर खरीद कर दिए जबकि एमएसपी से नीचे आरती खरीदते हैं और फिर अपना मुनाफा लेकर सरकार को ही बेच देते हैं।

गोपाल कृष्ण अग्रवाल, राष्ट्रीय प्रवक्ता, भाजपा।

साहसी सरकार कर रही है व्यापक मूलभूत सुधार

मौजूदा केंद्र सरकार यदि यथास्थितिवाद में विश्वास रखती तो पिछली सरकारों की तरह झूठे वादे कर बरगलाती रहती

ये तीन कृषि बिल सिर्फ सामान्य बदलाव भर नहीं हैं। इस क्षेत्र में व्यापक सुधार के लिए सुविचारित कार्ययोजना को मूर्त रूप देने की पहल हैं। जब भी किसी अहम क्षेत्र में ऐसे बड़े सुधार होते हैं, सरकार को अपनी राजनीतिक पूंजी दांव पर लगानी होती है। देश के अन्नदाताओं के लिए यह साहस भरा कदम मोदी सरकार ने उठाया है। सरकार यथास्थितिवाद में विश्वास रखती तो पहले की तरह झूठे आश्वासन दे कर बरगलाती रहती 70 वर्षों से चली आ रही किसानों की दुर्दशा को दूर करने के लिए यह बड़ा कदम उठाया गया है।

इन आंदोलनकारियों के लिए ऐसा नहीं कहा जा सकता कि वे किसान नहीं है या फिर वे राष्ट्रविरोधी है, लेकिन उनके विरोध को गंभीरता से देख कर उसका निष्पक्ष आकलन करने की जरूरत है। इसमें मुख्यतः पंजाब-हरियाणा तथा सीमित रूप से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान व आढ़ती परोक्ष-अपरोक्ष रूप से शामिल है। इनकी धान और गेहूं की लगभग 90 फीसदी खरीद सरकारी एजेंसियों से हो जाती है। राष्ट्रीय परिदृश्य देखें तो ये अपेक्षाकृत संपन्न किसान हैं और आढ़तिए इनके साथ है। इन्हें लग रहा है कि नई व्यवस्था में इनका अपना हित प्रभावित होगा, इसलिए ये संघर्ष कर रहे हैं और यथास्थिति बनाए रखने में दिलचस्पी ले रहे हैं। लेकिन देश के अन्य भागों में बाजार व्यवस्था चरमराई हुई है। 

सरकार के लिए बाकी 70 से 80 फीसदी किसान इनसे कम अहमियत नहीं रखते, इसलिए बाजार की यथास्थिति को बदलना चाहती है। और भी फसल है और दूसरे किसान हैं, उनके लिए सुधार बहुत जरूरी है। आंदोलन कर रहे वर्ग की बातों को भी सरकार ने पूरे ध्यान से सुना और महत्त्व दिया है। सरकार ने अब तक पांच चक्र की बातचीत की है। इस दौरान किसानों के कई सुझावों को रजामंदी भी दी है। नए बिल में बनने वाली प्राइवेट मंडियों के लिए भी समान कर प्रावधान जोड़ने को तैयार हुई। विवाद की स्थिति में एसडीएम के पास जाने की व्यवस्था इसलिए की गई थी कि समयबद्ध तरीके से उन्हें न्याय मिल सके। लेकिन मांग के मुताबिक सामान्य अदालती व्यवस्था में जाने के प्रावधान को लागू करने को तैयार हुई है। जो कह रहे हैं कि कोरोना के बीच बिना चर्चा किए ये बिल लाने की क्या जरूरत थी, वे स्थिति की गंभीरता और सचाई को पूरी तरह झुठला रहे है। 

पिछले 20 साल से देश में इन पर चर्चा हुई है, वैकल्पिक बाजारों की सिफारिशें आई हैं। राज्यों के कृषि मंत्रियों की समिति ने भी सलाह दी है। संसद की कृषि संबंधी समिति की 62वीं रिपोर्ट में भी यही कहा गया। समिति ने पूरे देश में घूम कर मशविरा किया। तब जाकर जून में यह अध्यादेश आया, फिर संसद में पारित किया गया। किसानों के नाम पर की जा रही राजनीति को भी समझना चाहिए। जिस कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में लिखा कि एपीएमसी (मंडी समितियों) को समाप्त कर देंगे, वह किसानों को मंडियों और एमएसपी के खत्म होने का डर दिखा कर बरगला रही है, एमएसपी का भ्रम फैलाया जा रहा है, जिसका बिल से कोई संबंध नहीं है। किसानों की आय जैसे बेहद महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर पिछले चार-पांच वर्षों में पहली बार इतनी गंभीरता से कदम उठाए गए हैं। 

इस सरकार ने समझा है कि जब तक किसानों के लिए यह काम लाभदायक नहीं बना दिया जाता, तब तक देश के संतुलित और सतत विकास को सुनिश्चित नहीं किया जा सकता। यह पिछले 20 साल में बनी सहमति है, सरकार अपनी कठिनाइयां बढ़ा कर भी देश के लिए जरूरी इस सुधार को लागू करने को कृत संकल्प है।

गोपाल कृष्ण अग्रवाल,

राष्ट्रीय प्रवक्ता, भाजपा।

6 हजार करोड़ की सालाना चोट खाने वाले 25 हजार आढ़तियों ने किसानों को भड़काया

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का मानना है कि दिल्ली सीमा पर किसानों के आंदोलन के पीछे पंजाब के आढ़तियों, बिचौलियों और कांग्रेस सहित कुछ राजनीतिक संगठनों का हाथ है। भाजपा के आर्थिक मामलों के राष्ट्रीय प्रवक्ता गोपाल कृष्ण अग्रवाल का दावा है कि नए कानून के कारण सालाना छह हजार करोड़ रुपये के कमीशन पर चोट पहुंचता देख 25 हजार आढ़तियों ने आम किसानों को भड़काना शुरू कर दिया। जबकि नए बने तीनों कानून किसानों के हित में हैं। भाजपा को उम्मीद है कि सही जानकारी मिलने पर किसानों के बीच नए कानूनों को लेकर गलतफहमी दूर हो जाएगी। केंद्र सरकार और भाजपा के बीच आर्थिक मामलों में सेतु की भूमिका निभाने वाले राष्ट्रीय प्रवक्ता गोपाल कृष्ण अग्रवाल ने आईएएनएस से कहा कि पिछले 20 साल का इतिहास देखेंगे तो पता चलेगा कि कई कमेटियों ने किसानों के लिए वैकल्पिक बाजार बनाने पर जोर दिया है। स्वामीनाथन कमेटी हो, पार्लियामेंट्री स्टैंडिंग कमेटी हो या फिर शांता कुमार समिति की रिपोर्ट, सभी ने इस दिशा में व्यापक बदलाव की जरूरत बताई थी। 

गोपाल कृष्ण अग्रवाल ने किसानों के आंदोलन के पीछे आढ़तियों और राजनीतिक दलों की सांठगांठ बताई। उन्होंने कहा, पंजाब में 25 हजार आढ़ती हैं। नए कानून से सालाना छह हजार करोड़ रुपये की कमाई पर चोट पड़ी है। साढ़े आठ प्रतिशत उनका कमीशन होता था। जिस तरह से नए कानूनों से एमएसपी और मंडी व्यवस्था खत्म होने की झूठी बात जोड़कर आंदोलन किया जा रहा है, उसमें राजनीति की बू आती है। मुझे लगता है कि आढ़तियों और उनसे मिले हुए कांग्रेस जैसे राजनीतिक दलों ने किसानों को भड़काने का काम किया है। 

शत प्रतिशत एमएसपी की खरीद के सवाल पर उन्होंने कहा कि शांता कुमार की रिपोर्ट उठाकर देखेंगे तो पहले कुल उत्पादन का सिर्फ छह प्रतिशत फसल ही सरकार खरीदती थी। अब मोदी सरकार में सरकारी खरीद बढ़कर 15 प्रतिशत हो गई है। यानी कि मोदी सरकार किसानों के कल्याण के लिए बेहतर कर रही है। एमएसपी को लेकर भ्रम फैला रहे लोगों को समझना होगा कि केंद्र सरकार सिर्फ न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करती है, जबकि राज्य सरकारें खरीद करती है। राज्य सरकारें आर्थिक रूप से इतनी मजबूत नहीं हैं कि शत प्रतिशत खरीद वो कर पाएं और न ही उनके पास भंडारण की उचित क्षमता है। 

सरकार लिखित रूप में एमएसपी का आश्वासन क्यों नहीं देती? इस सवाल के जवाब में गोपाल कृष्ण अग्रवाल ने कहा कि जब नए कानून का एमएसपी से कोई संबंध नहीं है, तो फिर लिखकर देने की बात ही नहीं है। एमएसपी अलग विषय है, उस पर दूसरे स्तर से चर्चा हो सकती है। सरकार पहले ही कह चुकी है कि एमएसपी की मौजूदा व्यवस्था खत्म नहीं हो रही है। जैसे 70 साल से व्यवस्था चली आ रही है, वैसे ही चलती रहेगी। मंडियों की व्यवस्था भी पहले की तरह होगी। आज की डेट में एपीएमसी की मोनोपाली (एकाधिकार) किसानों की सबसे बड़ी समस्या है। आढ़तिये लोकल मंडी में किसानों को फसल बेचने के लिए मजबूर करते हैं। क्योंकि उन्हें साढ़े आठ प्रतिशत कमीशन मिलता है। जबकि नए कानून से जहां लाभ मिलेगा, किसान वहीं फसल बेच सकेंगे। 

कानून को लेकर किसान संगठनों से संवाद की कमी के कारण क्या यह आंदोलन खड़ा हो गया? इस पर भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता ने कहा कि सरकार ने व्यापक विचार विमर्श किया है। कई रिपोर्ट की सिफारिशों को ध्यान में रखते हुए और किसान संगठनों से बातचीत के बाद कृषि कानूनों से जुड़े ऑर्डिनेंस जून में आए थे। किसी को समस्या थी तो जून में भी बात उठा सकते थे। अब नवंबर के अंत में आंदोलन हो रहा है। इससे पता चलता है कि किसानों को गुमराह किया जा रहा है। स्टोरेज की लिमिट में छूट के पीछे क्या कारपोरेट को फायदा पहुंचाने का आरोप लग रहा है? इस सवाल पर भाजपा प्रवक्ता ने कहा कि देश में वेयर हाउसिंग की क्षमता कम है। उसके लिए स्टोरेज कैपेसिटी बनानी है। यह तभी होगा जब प्राइवेट इन्वेस्टमेंट आएगा। भारत में आवश्यक वस्तु अधिनियम (एसेंशियल कमोडिटीज एक्ट) 1955 में बना था, तब देश में अनाज की कमी थी। आज देश में अनाज सरप्लस है। ऐसे मे स्टोरेज की लिमिट में रियायत देकर प्राइवेट इन्वेस्टमेंट को बढ़ावा देने की कोशिश है।

गोपाल कृष्ण अग्रवाल,

राष्ट्रीय प्रवक्ता, भाजपा।