Reform 2.0 Labour Codes

After Atma Nirbhar Bharat stimulus package our government has embarked on two major reforms in agriculture and labour laws. These policy reforms are market orientated, bringing efficiency, transparency and easy of compliances in both the segments.

India had 67 percent of population in the working age (15-64 years) in 2019 according to the World Bank. This high ratio of working to non-working age population, gives us an opportunity to reap the demographic dividend, if we are able to gainfully employ this population. The window is small and closing fast because of falling fertility rates in India. If we as a country miss this opportunity, we will be old before we get rich. With this and the fact that employment is poverty alleviating in mind, Modi government is in overdrive to set an enabling environment.

Indian labour laws are considered complex and restrictive. One of its defining characteristics is job security of workers covered under it. Complexity also implies huge compliance burden for the companies. As a consequence of this, the labour to capital ratio is low despite the fact that India is a labour abundant and capital scarce country. Rigidities in the labour market have also ensured that the employment elasticity of Indian economy has remained low. Therefore GDP growth does not lead to commensurate employment generation.

A disturbing feature of Indian labour sector is its very high degree of informality. 93 percent of India’s labour force works informally. About 80 percent of it works in the unorganized sector and the remaining is employed informally in the organized sector of the economy. Therefore a lot of focus in these codes has been to promote formal employment. The definition of ‘employees’ in the code on social security has been expanded to include workers employed through contractors, self employed migrant workers, additional categories of platform workers etc. It also provides for a registration of unorganized workers, gig workers and platform workers and says that the Central government will set up a social security fund for such workers. These provisions together with measures like making appointment letters compulsory and allowing business enterprises to hire workers directly on contract are aimed at reducing informality.

One of the most significant changes brought through the new industrial relations code is the introduction of fixed term contracts. The first time fixed term contracts were introduced was in 2016 but it was only for the apparel industry. Though in 2018 it was allowed for other industries as well, the effect was limited because this new form of employment was introduced through changes in rules made under the Standing Orders Act which applies only to industrial establishments with 100 or more workers. In the absence of such an enabling provision, companies were forced to hire workers informally. Thus, this change is expected to boost employment in industries that experience seasonality in production. Workers will be eligible for all statutory benefits available to a permanent worker proportionately, according to the period of service rendered by them and the minimum qualifying period would not apply to them.

Focus of the current codes on self certification, reduced compliance and simplification will lead to a lower cost of doing business. Closure, lay-offs and retrenchment in factories employing up to 300 workers would now not need prior approval of the concerned Government. This, coupled with the fact that even the Standing Orders has been made applicable to establishments with over 300 workers means that smaller companies would not be hobbled by regulatory cholesterol. Not only this, the code on occupational safety, health and working conditions has increased the threshold of its applicability to 20 workers  where the manufacturing process is carried out using power and 40 workers without using power. Government rightly believes that when enterprises grow up to a certain size only then they would be in a position to bear higher compliance burden. The biggest beneficiary of the new codes would be the Micro, Small and Medium Enterprise (MSME) Sector. This sector produces 40 percent of India’s GDP and employs a higher number of people per unit of invested capital.

With other supportive measures like production linked incentives, globally competitive corporate tax rate and balanced free trade agreements, we can safely say that the Central government has almost solved the jigsaw puzzle that Indian manufacturing sector had become and with the coming Budget 2021 and the years that follow, would see exponential growth in manufacturing and employment.

Economic reforms require expending political capital by the governments, as the benefits of reforms are spread thin and apparent only with a time lag and seemingly adverse impact on certain stakeholder are felt immediately. Therefore, India has not seen many major reforms since 1991 and even then important areas like land, labour and agriculture were left out of agenda. The biggest take away from these codes and the recent reforms in the agricultural sector, is a confirmation that a reformist government is at the helm of affairs that will get Indian economy rid of its socialist vestiges. That, for me, is a very reassuring feeling.

Gopal Krishna Agarwal

National Spokesperson Of BJP

gopalagarwal@hotmail.com

पेट्रोल डीजल की बढ़ती कीमतों का सच

आधिकारिक तौर पर पेट्रोल और डीजल की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल से तय होती है। पेट्रोल की कीमत अंतरराष्ट्रीय और ग्लोबल वजहों से तो बढ़ती है, लेकिन इसमें कई कारण घरेलू भी होते हैं। पेट्रोल प्राइसेज और फेडरल स्ट्रक्चर को हमें समझने की जरूरत है।

जितनी भी हमारी पेट्रोल की आवश्यकता है उसका 85 फीसदी हम इंपोर्ट करते हैं। हमारे पूरे इंपोर्ट का 70 फीसदी बिल पेट्रोलियम पदार्थो के इंपोर्ट पर खर्च हो जाता है। भारत की पेट्रोलियम पदार्थो की खपत को लेकर स्थिति काफी सीमित है। इसीलिए हमें अपनी उर्जा की खपत के लिए पेट्रोलियम स्रोतो के अलावा अन्य वैकल्पिक स्रोतो को भी अपनाना पड़ेगा। वास्तव में प्रदेश सरकार और राज्य सरकार दोनों ही इस पर एक्साइज और वैट टैक्स लगाते हैं और इस टैक्स का कॉम्पोनेंट काफी ज्यादा है। जहां तक प्रदेश सरकारों की बात है, केंद्र सरकार राज्य सरकार को अपने टैक्स कलेक्शन का 42 फीसदी भाग सीधा ट्रांसफर करती हैं। इसके अलावा केंद्र सरकार की जितनी भी जनकल्याणकारी योजनाएं हैं उसका पैसा भी केंद्र सरकार राज्य सरकारों को देती है। तो ऐसे में केंद्र सरकार के कलेक्शन का ज्यातर हिस्सा राज्य सरकारों को चला जाता है। इसलिए हमारा ऐसा मानना है कि राज्य सरकारों को अपना वैट कम करना चाहिए, जिससे तेल की कीमतों पर नियंत्रण किया जा सके।

अगर तेल की कीमतों पर नियंत्रण करना है तो इसका लॉन्ग टर्म सॉल्यूशन यही है कि इसे भी जीएसटी के अंदर ही लाया जाए। केन्द्र सरकार इसके लिए राज्य सरकारों से अग्रह भी किया है। केंद्र सरकार राज्य सरकारों को जीएसटी के अन्तर्गत भी पूरा कंपनसेशन दे रही है।

सबसे महत्वपूर्ण बात है कि रिन्यूएबल एनर्जी की तरफ सरकारों को ध्यान देना आवश्यक है। बीजली आपूर्ति के लिए जो डिसकॉम कम्पनियां है उनकी माली हालत भी काफी खराब है, हमारी सरकार ने उनकी हालत दुरुस्त करने के लिए बजट में काफी प्रावधान किए है। देश का बिजली डिस्ट्रीब्यूशन नेटवर्क काफी पुराना और खस्ता हालत में पड़ा हुआ है। हम उसको मजबूत करने की तरफ भी कार्य कर रहे हैं। इसके अलावा बैटरी ऑपरेटेड गाड़ियां ज्यादा से ज्यादा सड़कों पर आए इस संबंध में एक दीर्घकालिक नीति बनानी होगी जिसपर भी पिछली सरकारो ने ध्यान नहीं किया।

पुरानी सरकारें तेल कंपनियों को सब्सिडी ऑईल बॉड के रुप में दे दिया करती थी, मोदी सरकार अब उसका भुगतान कर रही है। पिछली सरकारों ने पेट्रोल-डीजल को सब्सिडाइज किया, उस राशि को तेल कम्पनियों को भुगतान भी नहीं किया और बजट में उसका प्रावधान भी नहीं किया। अब वह हमारी सरकार को भुगतान करना पड़ रहा है। यह वजह भी है कि आज हम पेट्रोल प्राइस को लेकर बुरी स्थिति में फंसे हुए हैं। इन सारी चीजों को जनता को समझना पड़ेगा।

इसके अलावा कोविड-19 महामारी की वजह से भी इनकम टैक्स का कलेक्शन काफी कम हुआ है। कॉर्पोरेट और व्यक्तिगत टैक्स लगभग 26 फीसदी घटा है, जबकि केंद्र सरकार ने प्रदेशो को फंड ट्रांसफर में कोई कमी नहीं की है और अपना वार्षिक खर्च भी कम नहीं किया है। केंद्र सरकार कोरोना वायरस से लड़ने के लिए आत्मनिर्भर भारत के अन्तर्गत कई नई जन कल्याणकारी योजनाएं लेकर आई है।

हेल्थ सेक्टर और आत्मनिर्भर भारत में काफी खर्च बढ़ाया गया है। यह टैक्स का कलेक्शन कम होने के बावजूद भी पूरा खर्च केन्द्र सरकार की तरफ से किया गया है।

केन्द्र सरकार के इस वर्ष के बजट में लगभग 14.5 प्रतिशत आय घटने के बावजूद अपने खर्च को, अर्थव्यवस्था की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए 34 प्रतिशत से बढाया है। इसके परिणाम स्वरुप ही हमारी अर्थव्यवस्था कोविड के बाद तेजी से पटरी पर आ रही है।

सरकार ने राजकोषीय घाटे को बढ़ाकर और ऋण आपूर्ति के द्वारा संसाधन जुटाने का मार्ग चुना है जिसे सभी के द्वारा सराहा गया है हालांकि सभी तरफ से यही सुझाव आ रहे थे कि डायरेक्ट टैक्स बढ़ाया जाए। तमाम चुनौतियों के बावजूद मोदी सरकार ने जनता पर कोई अतिरिक्त भार नहीं डाला है। समय की मांग थी कि सरकार अपने व्यय को बढाए और अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करें। सरकार ने हर तरह से अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करने की कोशिश की है।

अगर आज हम देखें तो देश की अर्थव्यवस्था पुनः विकास पथ पर अग्रसर हो गई है। रिजर्व बैंक के रिपोर्ट हो या वित्त मंत्रालय की मासिक आर्थिक रिपोर्ट, सभी आर्थिक मोर्चे पर देश की मजबूत होती स्थिति को दर्शाती हैं। पर्चेज मैनेजर इंडेक्स भी उद्योगों की बढ़त ही दर्शा रहा है। इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन सूचकांक आठ क्षेत्रों में विकास की अच्छी दर दर्शा रहा है। जीएसटी का कर संग्रह पिछले तीनों महीनों में एक लाख करोड से ऊपर रहा है। इन से इतर आईएमएफ रिपोर्ट के अनुसार भी भारत की जीडीपी अगले वर्ष 11.5 प्रतिशत से बढ़ेगी और भारत विश्व की सबसे तीव्र गति से बढ़ने वाले अर्थव्यवस्था बना रहेगा।

पिछली सरकारो की गलत नीतियों को ठीक करने के लिए और वर्तमान में अर्थव्यवस्था की आवश्यकता को ध्यान में रखकर सरकार सभी महत्वपूर्ण निर्णय ले रही है। विश्व स्तर पर भी सरकार तेल उत्पादन को बढ़वाने के लिए प्रयास कर रही है।

गोपाल कृष्ण अग्रवाल

राष्ट्रीय प्रवक्ताभाजपा आर्थिक मामलो

gopalagarwal@hotmail.com

कृषि सुधार कानूनों पर बढ़ती राजनीति

2020-21 की दूसरी तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 7.5 फीसदी की गिरावट दर्ज की है। लेकिन जीडीपी के कृषि क्षेत्र में पुनः वृद्धि 3.4 प्रतिशत की हुई है, जो अच्छे संकेत दे रहे है। कृषि और ग्रामीण क्षेत्र ने अर्थव्यवस्था के सुधार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

कोविड-19 समस्या के परिणामों और कठिनाइयों से निपटने के लिए, मोदी सरकार ने मई 2020 में ‘आत्मनिर्भर भारत’ पैकेज की घोषणा की थी। इन घोषणाओं के अनूरुप, केंद्र सरकार 5 जून 2020 को 3 अध्यादेशों को लाई थी। और अब ये संसद से पारित कानून बन गये है। कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020, कृषि (सशक्तिकरण और संरक्षण) मूल्य अश्वासन और कृषि सेवा करार विधेयक, 2020 और आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, 2020 है।

ये कानून पूर्ववर्ती सरकार के किसानों के कल्याण के नाम पर गलत हस्तक्षेप को सीधा विराम लगाने के लिए है।

कृषि क्षेत्र में आपूर्ति श्रृंखला को मजबूत करने के लिए, खुदरा वितरण, वेयरहाउसिंग, कोल्ड स्टोरेज और परिवहन आवाजाही आदि में बड़े पैमाने पर निवेश की आवश्यकता है। यह बड़ा निवेश निजी क्षेत्र से ही आ सकता है। लेकिन जब तक हम भंडारण की सीमा नहीं हटाते है निजी निवेश नहीं होगा। भारतीय कृषि, कम उपज से प्रचुरता की ओर बढ़ रही है इसलिए वर्ष 1955 से लागू आवश्यक वस्तुओं के कानून पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।

कृषि क्षेत्र के यह सुधार, व्यापक अर्थव्यवस्था के विकास के लिए वर्ष 1991 के समय के मूलभूत बदलावों के समान ही हैं। सभी प्रमुख अर्थशास्त्रियों और कृषि विशेषज्ञों द्वारा इसका स्वागत भी किया गया है। इन सभी सुधारों की आवश्यकता लंबे समय से महसूस की जा रही थी। पिछले 20 वर्षो का इतिहास देखेगें तो पता चलेगा कि ‘राज्य मंत्रियों की समिति’ द्वारा कृषि बाजार सुधारों को लागू करने के लिए कृषि विपणन प्रणाली वाली अपनी रिपोर्ट में इन सभी आवश्यकताओं पर जोर दिया गया था। कृषि पर संसदीय स्थाई समिति की बासठंवी रिपोर्ट में भी यही बात दोहराई गई थी। चूँकि ये रिपोर्ट राजनीतिक पक्षपात में नहीं फंसी थी, इसलिए इसे लगभग सभी राजनीतिक दलों का समर्थन प्राप्त हुआ था। अब कांग्रेस एवं कुछ अन्य राजनीतिक दल और उनसे जुड़े किसान और बिचौलियों से संबंधित संगठन अपने नुकसान को ध्यान में रख कर कोलाहल मचा रहे हैं और लगातार गलत सूचना एवं अफवाहें फैलाई जा रही है।

यह बहुत ही दुखद है कि इस प्रकार किसानों के हित को अनदेखा करके कहां जा रहा हैं कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को खत्म कर देगी जबकि सरकार द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया है कि एमएसपी सिस्टम को हटाने का कोई सवाल ही नहीं है। इस वर्ष की एमएसपी की बढ़ी हुई खरीद की दरों का भी ऐलान कर दिया गया है। और खरीदारी भी शुरु हो गई हैं।

मंडी अधिनियम भारतीय संविधान के अंतर्गत राज्यों के दायरे में आते हैं और इसलिए केंद्र का इसमें एकतरफा संशोधन करने का कोई अधिकार ही नहीं है। केवल अंतर-राज्यीय कमोडिटी ट्रेड ही केन्द्र के अधीन आते हैं। इसलिए मौजूदा मंडी संरचना को समाप्त नहीं किया जा सकता है। अब कृषि उपज के लिए व्यापार और वाणिज्य की वैकल्पिक बाजार सुविधा प्रदान करने के लिए नए अधिनियम के साथ कई नई संभावना बन रही हैं। निजी बाजारों से प्रतिस्पर्धा के कारण मंडियां अब किसानों की उपज खरीद का एकाधिकार नहीं कर सकेंगी ।

शत प्रतिशत एमएसपी की खरीद के सवाल पर शांता कुमार की रिपोर्ट उठाकर देखेंगे तो पहले कुल उत्पादन का सिर्फ छह प्रतिशत फसल ही सरकार खरीदती थी। अब मोदी सरकार में सरकारी खरीद बढ़कर 15 प्रतिशत हो गई है। यानी कि मोदी सरकार किसानों के कल्याण के लिए बेहतर कर रही है। केंद्र सरकार सिर्फ न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करती है, जबकि राज्य सरकारें खरीद करती है।

जब नए कानून का एमएसपी से कोई संबंध नहीं है, तो फिर लिखकर देने की बात ही नहीं है। एमएसपी अलग विषय है, उस पर दूसरे स्तर से चर्चा हो सकती है। आज के वक़्त में एपीएमसी की मोनोपाली (एकाधिकार) किसानों की सबसे बड़ी समस्या है। आढ़तिये लोकल मंडी में किसानों को फसल बेचने के लिए मजबूर करते हैं। क्योंकि उन्हें साढ़े आठ प्रतिशत कमीशन मिलता है। जबकि नए कानून से जहां लाभ मिलेगा, किसान वहीं फसल बेच सकेंगे।

जहां तक किसानों के अपनी जमीन को कॉरपोरेट के पास खोने की बात है। मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तीकरण और संरक्षण) समझौता कानून, 2020. कृषि उत्पाद के खरीद का समझौता है ना कि किसान की भूमि के बारे में समझौता है। इस कानून में किसानों के लिए उनकी भूमि पर कई सुरक्षा के नए उपाय भी है। उपज के नुकसान के मामले में किसानों को ही बीमा क्षतिपूर्ति का लाभ मिलेगा और उनकी भूमि पर उपयोग किए जाने वाले उपकरणों को उनके लिए ही संरक्षित किया गया है। कानून के अन्दर विवाद समाधान की प्रक्रिया को भी जिला स्तर पर जिला बोर्ड के माध्यम से निर्धारित किया गया है। किसानों को न्याय पाने के लिए एक अदालत से दूसरे अदालत में अब चक्कर नहीं लगाने पड़ेंगे।

2014 के बाद से जिम्मेदार विपक्ष का अभाव भारतीय राजनीति का एक हिस्सा बनता जा रहा है। यह सोच पूर्णतः गलत है, जब की कांग्रेस ने खुद सत्ता में रहते हुए इन नीतियों की पैरवी की थी। कांग्रेस पार्टी ने अपने 2014 और 2019 के चुनाव घोषणापत्र में तो एपीएमसी प्रणाली को खत्म करने का ही वादा किया था। इन उपायों का जनता से वादा भी किया था।

सभी तीन कानून कृषि बाजारों के सुधार के लिए ही हैं। नए और राष्ट्रीय बाजारों के विकल्प देना, बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए निजी निवेश को आकर्षित करना, बेहतर मूल्य के निर्धारण में मदद करना, सूचना प्रसार तंत्र स्थापित करना और किसानों को उनकी उपज के लिए उचित मूल्य आश्वासन प्रदान करना इनका लक्ष्य है।

प्रधानमंत्री श्री मोदी जी किसानों के हित के लिए दिन-रात प्रयासरत हैं, और सही सूचना जन-जन तक पहुंचाने के लिए भारतीय जनता पार्टी सतत कार्य कर रही है। किसी को भी यह दुविधा नहीं रहनी चाहिए कि हमारी सरकार के लिए किसानों का हित ही सर्वोपरि है।

गोपाल कृष्ण अग्रवाल

राष्ट्रीय प्रवक्ता, भाजपा आर्थिक मामलों

gopalagarwal@hotmail.com

Farmers Protest: Roadmap ahead

There is a marked difference between the agitating farmers and the anti-social, ultra-left and pro-Khalistan elements piggy backing on these protesting farmers. Understanding this difference is important for all well meaning citizens, politicians, journalists, activists and anyone else who wishes to comment on the issues. This agitation is not merely a law and order issue and dealing it as such will be a mistake. Secondly this is not focused on the interest of the farmers, this also is not about the three farm laws alone, so any effort for explanation about the benefits of these laws will not cut any ice with the agitation leaders. Thirdly, the two different factions; the Sikhs of Punjab, concentrating on the singhu border and the other being the Jatz mostly from the western Uttar Pradesh, stationed at Ghazipur border are showing signs of strain in their relations. People at singhu border are averse to any political intervention, but at Ghazipur border, Rakesh tikait and his gang, show inclinations of political ambitions. How the government looks into these two strains is important in the coming weeks. The plot has thickened, with the global players like Poetic Justice, Sikh for Justice, Justin Trudeau, Greta Thunberg, Miya Khalifa etc. jumping on the bandwagon. It is a political movement against the Narendra Modi government and has to be dealt politically.

The complexity of the situation is that, the farm laws are good for the agriculture sector and will benefit farmers to a very large extent; attracting much needed private investment in this highly capital deficient sector, starving for market based reforms over several decades, but still the leaders of movement want repeal of these laws and will not accept any amendments. The government has already bent backwards, on different occasions, agreeing to more than a dozen amendments, meeting out farmer’s concerns on minimum support price (MSP) and offering to suspend these three laws for a period of up to two years, which itself makes them temporarily ineffective.

The government’s reluctance to repeal them stems from the conviction about the need for market oriented reforms in the farm sector and increasing the role of private players in the agriculture economy. This stand has been reiterated over two decades by agro economist, Parliament standing Committee on agriculture, empowered committee of the State agriculture ministers and several commissions on farm sector reforms. BJP is ideologically right to centre party, believes in markets economy and the important role of business and industry community in the economic development of the nation. If this moment of reckoning is lost, it will cause irreparable damage to democratic polity of the country. The question that pricks one’s mind is, will India move towards anarchy? “The tyranny of the unelected” or will respect the democratic institutions, like Parliament, Supreme Court and the process of law making as envisaged in the Constitution.

Reform as such is very difficult as the benefits comes with a time lag and are spread thin, whereas adverse impact on certain stakeholders are marked and are immediate. Lot of political capital is to be spent on carrying out reforms and so political class is reluctant to carry them out. As such we have not seen many major reforms after 1991 and even then the reforms were restricted to attracting foreign direct investment (FDI), financial sector and international trade, being carried out under compulsion of imminent sovereign default. The leadership at that time couldn’t muster the courage to undertake major requisite reforms in land, labour and agriculture segments. If this golden moment is lost in petty politics, we may not have any appetite left to undertake mega reforms. Also, there are no more, low hanging fruits available for reforms for the government.

Whoever may gain or lose out of this agitation, but farmers surely will be at a loss. This demonstration brute force and immaturity of farmers is a cause for worry and is majorly responsible for decades of inaction of the successive governments on agriculture reforms.

We the people of India must know that while there may have been certain shortcoming in the process of enactment of these laws, but they are the law of the land and serve the larger interest of the agriculture segment of the society. It is not in the interest of the country to get these laws repealed.

The responsibility of building right narration rests on all well meaning citizens of the country. It cannot be left to political class alone. Politics will be what it is with all its limitations in a democratic ecosystem. Let us all rise to the occasion. Among other things, the agitators have also been drawing strength from the misplaced sympathy of fellow countrymen. It is our duty to be well informed and support the Government in this path breaking reforms.

Gopal Krishna Agarwal

National Spokesperson of BJP

gopalagarwal@hotmail.com

National Logistics Policy must include components on Hydrogen Storage & Transportation

Gopal Krishna Agarwal, National Spokesperson – Economic Affairs, BJP believes that for India to become a 5 trillion economy in the coming years, it must find out new areas where it can catalyze economic growth. This is where green hydrogen can be important. Not only will a green hydrogen economy establish India’s importance in international leadership, it can also propel its economic growth.

Honorable Prime Minister Narendra Modi has taken it upon himself to be a    global leader in climate change challenges and is committed to the cause of renewable energy. This shows that there is willpower at the top leadership level for achieving these goals. Because of this commitment, after COP21, India has taken some bold steps in meeting emission norms. Consequently, after the Paris Climate Change Summit, India’s emissions have reduced by 28% since the levels in 2005, according to a report. We are almost on the verge of achieving the target of reducing emissions by 30% by 2030.

A major noteworthy measure taken by India is to set up the International Solar Alliance, with its head office in India, along with France. Another initiative taken by India to meet its green energy commitments is to obtain 80-85% of its electricity demand through renewable sources by 2050. India is also committed to the United Nations Sustainable Development Goals, incorporating all the 17 goals into the government policies. Recently India has achieved target of 40% power generation capacity based on non-fossil sources.

Green hydrogen economy: The baton of a zero-carbon future However, coal’s share in India’s energy mix constitutes over 44% while oil contributes to around 25%. The share of bio-energy and CNG is 21% & 5.8% respectively while that of nuclear & solar energy is critically low. Coal being a fossil fuel is a recipe for a climate hazard while the oil prices in the country are skyrocketing and imported oil is inflating India’s import bill. As India treads farther on the road to industrialization, its per capita energy consumption will grow from 30% currently, which is lower than the world average consumption, to almost double in 2040. This is attributed to the fact that India has now displaced US to become the second most attractive destination for setting up manufacturing industries globally.

Though there are certain concerns about large hydro projects, India has a huge potential in it. Similarly, small hydro project can be important initiatives although they are nearly non-existent at present. But at the same time, India now has the world’s fifth-largest solar power and fourth-largest wind energy capacities. This energy can be used to produce green hydrogen, a zero carbon emission fuel, and it will be a big game changer for the whole energy sector.

Hydrogen is a big source of energy, and though there are several challenges at present, and India is not a big player in this field, the direction in which private investments and the government is moving can bring big rewards for the country. It will help in energy security, decarbonization, and to meet the target for reduced carbon emissions. Moving into the sector of hydrogen energy, which can become the most important component on the renewable energy side, there is an estimation that an investment of more than US$ 500 billion will be required in the near future. Many private companies like Reliance, Adani Power, Tata Power and Mittal Power and even some of the government companies in the energies, like NTPC, have set up big targets and there is an expected investment commitment of US$ 316 billion by 2030. If the government policies are supportive, and the challenges pertaining to the implementation of hydrogen energy are met, India can become a big player in this field.

Creating a conducive ecosystem for a green hydrogen economy; setting up of National Hydrogen Mission.

At present, cost is a big challenge for hydrogen technology. There is also a big competition on the solar energy side from China. A big challenge that can be found from the private sector is high interest costs. Though the government is continuously reducing interest costs, more sources of energy and funding are needed for this to happen. If new and improved technology is brought along with innovation and research, the production challenges can be met. Recognizing the challenges and finding solutions is also something the government is working on. It is now coming up with new industrial and logistics policies to address concerns like transportation and availability of raw material among others. There is also a focus on building manufacturing bases in India. The government has, in the Aatmanirbhar Bharat also committed 90,000 crore rupees on the upgradation of power sector and tackle the issues of grid reforms, improvement in transmission and improvement in the discoms.

The private players as well as the government agree that hydrogen and silicon are novel fields that can generate a lot of wealth for the country. Around 1500 crore rupees has been committed by the government for setting up this National Hydrogen Mission. Various policies are being implemented and roadmaps are being set up. Ultimately when the objective is clear and commitment of the highest level for clean and green energy is there, India will surely be able to achieve its targets.

The Government is coming out with new National Logistics Policy; it must address issues pertaining to integrated logistics hubs, hydrogen storage, transportation, warehousing, and ports. Similarly, internalizing the environmental cost on the corporate sector’s balance sheet, will help in proper project evaluation for the government and also bring better presentation. So, the recording of these environmental initiatives in the balance sheet and internalizing cost is another important issue where more research and development can take place. Finance accounting professionals as from Institute of Chartered Accountants of India (ICAI) can take this initiative. More sources of low cost funding are must to propel a robust hydrogen economy in the country and the government is taking steps towards that.                                       

भारत में पीने योग्य पानी: मूल्य निर्धारण,सर्वमान्य उपलब्धता एवं भारतीय संविधान जीवन के अधिकार के रूप में जल

 जल संसाधनों के प्रबंधन, आपूर्ति और स्वामित्व में सरकार के लिए पानी के विषय में संवैधानिक अधिकारों को समझना बहुत महत्वपूर्ण है। वर्तमान में, जल का अधिकार भारत में न्यायालयों के विभिन्न निर्णयों के माध्यम से ही निर्धारित किया जा रहा है। कई अदालती मामलों में दोहराया गया है कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार के रूप में सरकार द्धारा देश के सभी नागरिकों को पीने का पानी उपलब्ध कराया जाना चाहिए।  अब तक सरकार ने पानी के प्रबंधन और वितरण के लिए मार्गदर्शक निर्देशन के रूप में तीन राष्ट्रीयजल नीतियां बनाई हैं। 

जल का उपयोग सभी क्षेत्रों द्धारा किया जाता है, चाहे वह कृषि, उद्योग, वाणिज्यिक सेवाएं और आवासीय क्षेत्र हो। हालांकि ये  सभी क्षेत्र एक दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं, परन्तु  व्यक्तिगत और घरेलू उपयोग के लिए पानी की उपलब्धता एक मानव अधिकार है। प्रत्येक मनुष्य को पानी का अधिकार है, जो पर्याप्त, सुरक्षित, स्वीकार्य, भौतिक रूप से सुलभ और वहनीय हो। भारत के शहरों में पानी के लिए मानव अधिकार एक बढ़ती हुई चुनौती है, जो तेजी से शहरीकरण के साथ साथ, बुनियादी सेवाओं में  गुणवत्ता के लिए नागरिकों की अधीरता का कारण भी है। 2019 तक, केवल दो करोड़ घरों में पानी के लिए नल के कनेक्शन थे, यह संख्या बढ़कर लगभग नो करोड़ घरों में नल  के द्धारा पानी की उपलब्धता हो गई है। बेशक, किसी के घर में या उसके आस पास केवल नल से पानी का स्रोत होना अच्छी गुणवत्ता या पर्याप्त मात्रा में पानी की कोई गारंटी नहीं है, फिरभी हर घर जल की योजना अति  महत्वपूर्ण हे।  

जहां बुनियादी पहुंच ही नहीं है, वहां स्वच्छता का आश्वासन नहीं दिया जा सकता है। इसलिए पानी और स्वास्थ्य क्षेत्रों के लिए बुनियादी स्तर की पहुंच प्रदान करना सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। पानी की आपूर्ति के लिए लोगों को बहुत और प्रयास करना पड़ता है। घर से दूरी पर पानी का स्रोत, कपड़े धोने, नहाने आदि जैसी गतिविधियों को सुनिश्चित नहीं कर सकता है। पीने के पानी के लिए भी असमानता देखी जाती है इसलिए, सार्वजनिक स्वास्थ्य लाभ के लिए, पानी की उपलब्धता और उसका विस्तार किया जाना आवश्यक है।

भारत में पानी एक भावनात्मक मुद्दा है। बढ़ती आबादी, औद्योगीकरण और शहरीकरण के कारण  पानी की मांग लगातार बढ़ रही है जबकि पानी का उपलब्ध स्तर स्थिर बना हुआ है। विभिन्न उपभोगकर्ताओं, उपयोगों, क्षेत्रों और राज्यों के बीच संघर्ष नियमित चलता रहता है।

हालांकि भारत के संविधान में पानी के अधिकार को स्पष्ट रूप से संरक्षित नहीं किया गया है, लेकिन अदालतों द्धारा इसकी व्याख्या की गई है कि जीवन के अधिकार में संरक्षित और पर्याप्त पानी का अधिकार शामिल है। अधिकांश देशों के राष्ट्रीय कानून में पानी के अधिकार के स्पष्ट संदर्भ की कमी के कारण अदालतों के माध्यम से  ही इस अधिकार को समावेश करने  की आवश्यकता होती है। इसलिए कई देशों में पानी  के  विषय  को पर्यावरण या सार्वजनिक स्वास्थ्य कानून के तहत लाया गया है। अदालतों ने अन्य संवैधानिक अधिकारों, जैसे जीवन के अधिकार या स्वस्थ पर्यावरण के तहत पानी के अधिकार की भी व्याख्या की है।

भारत में जल के अधिकार के लिए न्यायिक दृष्टिकोण, स्पष्ट रूप से सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों के पानी के अधिकार को आश्रय देने के आग्रह को दर्शाता है, जिससे गरीब से गरीब व्यक्ति को जीवन की बुनियादी सुविधाएं प्रदान की जा सकें। स्वच्छ पेयजल तक पहुंच का संवैधानिक अधिकार भोजन के अधिकार, स्वच्छ पर्यावरण के अधिकार और स्वास्थ्य के अधिकार से लिया जा सकता है, ये सभी संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार के अंतर्गत संरक्षित हैं। संविधान अनुच्छेद 21 के अलावा, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के अनुच्छेद 39ब में  भी समुदाय के भौतिक संसाधनों पर समाज के सभी वर्गों के लिए समान पहुंच के सिद्धांत को मान्यता दी गई है।

भारत में भूजल के अधिकार को भूमि के अधिकार के पालन के रूप में देखा जाता है। भारतीय सुगमता अधिनियम, 1882, भूजल के स्वामित्व को भूमि के स्वामित्व से जोड़ता है और यह कानूनी स्थिति तब से ही बरकरार है। लेकिन अधिकार की परिभाषा बताती है कि यदि आपका पड़ोसी बहुत अधिक पानी निकालता है और जल स्तर को कम करता है, तो आपको उसे ऐसा करने से रोकने का अधिकार है। इस प्रकार, भूजल के दोहन के किसी व्यक्ति के अधिकार की भी सीमाएं हैं।

अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में, 28 जुलाई 2010 को संकल्प 64/292 के माध्यम से, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने स्पष्ट रूप से पानी और स्वच्छता प्रदान  करने के मानव अधिकार को मान्यता दी हे, और स्वीकार किया है कि स्वच्छ पेयजल और स्वच्छता का अधिकार मानवाधिकारों की प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं। यह संकल्प राज्यों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों से सभी के लिए सुरक्षित, स्वच्छ, सुलभ और किफायती पेयजल और स्वच्छ जीवन  प्रदान करने के लिए देशों से, विशेष रूप से विकासशील देशों की मदद करने के लिए वित्तीय संसाधन, क्षमता निर्माण और आह्वान हस्तांतरण प्रदान करने का आह्वान करता है। 

भारत में जल अधिकारों और कानूनों का दायराव्यापक हो गया है और भारतीय न्यायपालिका द्धारा एक सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाया गया है, जो अंतरराष्ट्रीय मानदंडों और मानकों को दर्शाता है। भारतीय संविधान की समीक्षा करने वाले राष्ट्रीय आयोग ने अपनी रिपोर्ट में संवैधानिक प्रावधान द्धारा स्पष्टता लाने के लिए सुरक्षित पेयजल के अधिकार के रूप में एक नए अधिकार को शामिल करने की सिफारिश भी की हे। राष्ट्रीय जल कानून 2016 सही दिशा में एक कदम था, लेकिन दुर्भाग्य से यह संसद में पास नहीं हो पाया। पानी के प्रावधान के लिए विभिन्न सरकारों और संस्थाओं के अधिकारों और कर्तव्यों को स्पष्ट रूप से रखने वाला एक कानून समय की आवश्यकता है।

पानी के मूल्य निर्धारण संरक्षण एवं केहाशिएवर्ग की खपत

भारत पानी की कमी वाला देश नहीं है। हमारे पास पानी की पर्याप्त उपलब्धता है। फिर भी, हमारे दैनिक जीवन में हम इस उपलब्धता को महसूस नहीं करते हैं। मुद्दा जल संसाधनों का अकुशल वितरण और प्रबंधन, विशेष रूप से शहरी जल प्रबंधन है।

पानी, जीवन के लिए आवश्यक होने के कारण, एक बहुत ही संवेदनशील मुद्दा है और इसकी चुनौतियां और विभिन्न आयाम हैं, जैसे समान पहुंच, प्रतिस्पर्धी उपयोगए गुणवत्ता के मुद्दे, विकास के साथ विस्थापन, व्यावसायीकरण, निजीकरण, शहरीकरण और अंतर-राज्यीय संघर्ष। सरकार के पास इन मुद्दों के समाधान की बड़ी चुनौती है।

घरेलू पानी का उपयोग गरीब परिवार के जीवन यापन का एक अभिन्न अंग है। यह गरीबी उन्मूलन का महत्वपूर्ण हिस्सा भी है। पानी और स्वास्थ्य सेवाओं को बुनियादी स्तर तक पहुंचाना सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता है। सभी नीतिगत निर्णयों का लक्ष्य हैं की पर्याप्त स्तर पर जल संसाधन मिलने वाले घरों की संख्या में वृद्धि करना और हाशिए के वर्गों की खपत पर विशेष ध्यान केंद्रित करना।

पूर्ववर्ती सर्वे के अनुसार प्रति व्यक्ति घरेलू पानी की खपत और भारतीय मानक (BIS), 2001, दिल्ली मास्टर प्लान, केंद्रीय सार्वजनिक स्वास्थ्य इंजीनियरिंग और पर्यावरण संगठन, और जापान इंटरनेशनल द्धारा दिए गए अनुशंसित मानदंडों के बीच तुलनात्मक विश्लेषण में कम आय वाले क्षेत्रों में खपत की धूमिल तस्वीर दिखाई देती है।

श्इंडिया-अर्बन स्लम सर्वे: (एनएसएस), 69 वें राउंड’ के अनुसार, अखिल भारतीय स्तर पर,  हालांकि स्लम क्षेत्रों में रहने वाले परिवारों में पीने के पानी का स्रोत बढ़ा हुआ दिखता है,

लेकिन दूसरी ओर, गैर-झुग्गी-झोपड़ी क्षेत्रों में रहने वाले परिवारों के पीने के पानी के बेहतर स्रोत का प्रतिशत उस के अनुपात से काफी अधिक दिखता है। इससे पता चलता है कि समाज के आर्थिक रूप से निचले और ऊपरी तबके के बीच पानी की उपलब्धता और उपयोग में असमानता बढ़ रही है।

वर्तमान सरकार की जल जीवन मिशन योजना लगभग देश में सभी उन्नीस करोड़ घरों को नल के द्धारा पानी उपलब्ध कराने: हर घर  की महत्वपूर्ण पहल है और संविधान के अंतर्गत सरकार की प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए एक महत्वाकांक्षी योजना है। इसे हासिल करने से पहले हमें और भी बहुत कुछ कार्य करना होगा। पानी की गुणवत्त्ता, उसका मूल्य और मात्रा सुनिस्चित करना होग।  

नीति स्तर पर प्रतिस्पर्धी विचारधाराएं और विभाजित विचार हैं, विशेष रूप से मूल्य निर्धारण और संरक्षण को लेकर  स्पष्टता नहीं है, हमें पानी के विषय पर गहन चर्चा और पारदर्शिता की आवश्यकता है। व्यक्तियों या घरों के व्यावहारिक उपभोग पर पानी के मूल्य निर्धारण के प्रभाव के संबंध में विविध विचार चल रहे हैं। पानी जैसे घरेलू उपभोग्य वस्तुओं  की कीमत के प्रभाव पर कई अध्ययनों से पता चलता है कि उपभोग पूरी तरह मूल्य पर आधारित नहीं है। इस अंतर्निहित असमानता के बावजूद भी कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि कीमत एक अच्छा जल-मांग प्रबंधन उपकरण हो सकता है। आर्थिक सिद्धांत के आधार पर कीमतों में वृद्धि के साथ अधिकांश वस्तुओं की मांग की मात्रा कम हो जाती है, कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि कुशल जल प्रबंधन के लिए स्पष्ट मूल्य संकेतों की आवश्यकता होती है जो घरों में पानी के कुशल उपयोग के लिए प्रोत्साहन प्रदान करते हैं ओर परिणामस्वरूप पानी की  प्रतिस्पर्धी मांगो के बीचकुशल आवंटन भी होता है।

हम ये जानते हे की, कीमत के बारे में जागरूकता और घरों द्धारा पानी की कीमत में बदलाव के आधार पर उपभोग में बदलाव, मूल्य संवेदनशीलता को मापने के लिए एक संकेतक माना जाता हैए लेकिन हमारे वर्तमान अध्ययन में पाया गया है कि कम आय वाले लगभग 90 प्रतिशत घरों की खपत पानी के मूल्य बढ़ने से कम नहीं होगी, क्यूंकी मूल रूप से उन घरों में पानी के उपभोग का स्तर पहले से ही आवश्यकता के अनुपात में बहुत कम पाया गया है। पानी पर खर्च की गई ब्यक्तिगत  आय कुल आय के अनुपात को एक और पैरामीटर माना जाता है। प्राथमिक आंकड़ों का उपयोग करते हुए हमारे अध्ययन की गणना के अनुसार पानी पर खर्च की गई मात्रा आय के अनुपात का 4.93 प्रतिसत ही है, जिसका अर्थ है कि घरों में पानी के उपभोग पर खर्च मात्रा उनके कुल आय के अनुपात  में बहत कम है।  इसलिए परिवारों में पानी का उपयोग पानी की कीमत पर कम आधारित हैं। और जैसे  जैसे हम निम्न आय वर्ग से उच्च आय वाले उपनिवेशों में जाते हैं, उनका पानी पर खर्च की जाने वाली आय का अनुपात ओर भी कम हो जाता ह। इसलिए निम्न आय वर्ग की कीमतों की संवेदनशीलता उच्च आय समूहों की तुलना में कहीं अधिक है। जिससे यह स्पष्ठ होता है की कीमतो का पानी की खपत पर प्रभाव हाशिए पर रहनेवाली वर्ग पर ही अधिक होगा।

निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि पानी की खपत की मांग अत्यधिक मूल्य-संवेदी नहीं है। मुख्य कारण यह है कि लोग पानी का उपयोग  एक आवश्यकता के रूप में देखते हैं, न कि एक विलासिता के रूप में। इसका तात्पर्य यह भी है कि कीमत बढ़ाने से घरेलू पानी की खपत में उल्लेखनीय कमी नहीं आ सकती है। घरेलू जल उपभोक्ताओं द्वारा भुगतान करने की सहमति के आधार पर अधिकांश साहित्य, पानी के बाजार मूल्य को उचित ठहराते हैं।  लेकिन इन अध्ययनों में एक महत्वपूर्ण पहलू नजरअंदाज किया गया है कि कमी की स्थिति में भुगतान करने की इच्छा हमेशा आवश्यकताओं के लिए बनी रहेगी। पानी जैसे आवश्यक तत्वों से संबंधित नीतियों को डिजाइन करने में सामर्थ्य को ही अधिक प्राथमिकता दी जानी चाहिए। पानी का मूल्य निर्धारण एक महत्वपूर्ण नीतिगत निर्णय है। जिससे उच्च आय वर्ग की तुलना में गरीबवर्ग ही अधिक प्रभावित होंगे।  

घर में पानी की बर्बादी को कम करने का सबसे अच्छा तरीका है घर में पानी बचाने के उपायों के बारे में जागरूकता फैलाना। लापरवाही से पानी के उपयोग के परिणामों के बारे में लोगों में जागरूकता पैदा करने से लोगों को हम इस संसाधन का सही उपयोग करने में अधिक संवेदन शील होने में मदद मिलेगी। कुछ जल प्रबंधन के कुशल उपकरण जैसे कम प्रवाह वाले शावर और नल, दोहरी फ्लशिंग प्रणाली, कपड़े और बर्तन धोने के लिए पानी की बचत करने वाले उपकरण या पुनर्वास कॉलोनियों में सामूहिक नल आदि भी संरक्षण में बहुत मदद कर सकते है।

इस श्रृंखला में, हमने पानी के अधिकार, संरक्षण और समाज के हाशिए पर रहने वाले वर्गों की खपत ओर पानी के मूल्य निर्धारण के प्रभाव को देखा। हमारी सरकार सभी के लिए पानी की उपलब्धता का प्रयास करती है और लागत वसूली के लिए मूल्य निर्धारण और इसके अत्यधिक उपयोग को रोकने में संतुलन बनाती है।

पानी जीवन कातत्व: हाशिए के वर्ग की मूल्य संवेदनशीलता और खपत

के लेखक 

इस श्रृंखला में, हमने पानी के अधिकार, संरक्षण और समाज के हाशिए पर रहने वाले वर्गों की खपत ओर पानी के मूल्य निर्धारण के प्रभाव को देखा। हमारी सरकार सभी के लिए पानी की उपलब्धता का प्रयास करती है और लागत वसूली के लिए मूल्य निर्धारण और इसके अत्यधिक उपयोग को रोकने में संतुलन बनाती है।

इस श्रृंखला में, हमने पानी के अधिकार, संरक्षण और समाज के हाशिए पर रहने वाले वर्गों की खपत ओर पानी के मूल्य निर्धारण के प्रभाव को देखा। हमारी सरकार सभी के लिए पानी की उपलब्धता का प्रयास करती है और लागत वसूली के लिए मूल्य निर्धारण और इसके अत्यधिक उपयोग को रोकने में संतुलन बनाती है।

पानी जीवन कातत्व: हाशिए के वर्ग की मूल्य संवेदनशीलता और खपत

के लेखक 

गोपाल कृष्ण अग्रवाल (अध्यक्ष जलाधिकार फाउंडेशन और भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता)

युथिका अग्रवाल (सहायक प्रोफेसर, अर्थशास्त्र, दिल्ली विश्वविधालय)

Budget for India @75 is a template for Amrit Kaal

A focused, business-like approach to the budget at a time when there was pressure to come up with a populist one shows the maturity and sagacity of the Narendra Modi government. It leaves no doubt that the government is clear on long-term objectives and not too perturbed by short-term disruptions, and that it is committed to putting India on the trajectory of a high single-digit growth rate on a sustainable basis. 

The budget is high on policy stability, predictability and trust-based governance. This is evident from the fact that it has left all important provisions related to direct and indirect taxation unchanged. Government after government has tweaked the tax regime in successive budgets, but the finance minister (FM) has changed the narrative this time. The government has reaffirmed its commitment to keeping tax rates low and, at the same time, easing tax compliances by giving an opportunity to taxpayers to rectify their tax return, subject to a few conditions. 

The government has also decided to follow a sound litigation management policy and declared that if a question of law is pending before a jurisdictional high court or the Supreme Court, the tax department will not file any appeal in a matter involving the same question of law till the time it is settled. Stable and predictable policies play an important role in engendering private economic decisions and fostering economic growth. 

While there are many takeaways from the budget, the continued emphasis on public capital expenditure (capex) is one of the highlights. The FM reiterated that private capital expenditure is still weak, and the government will have to do the heavy lifting. Public capex has been increased by a whopping 35% to ₹7.5 lakh crore for 2022-23. Together with central government grants and aids to state governments for capital expenditure, this figure goes up to ₹10.68 lakh crore. As a result of this, private capex may take off sooner than expected. This will catalyse growth in many business ecosystems. The Economic Survey 2021-22 has already showed that there has been an uptick in bank credit growth. 

Micro, small and medium enterprises (MSMEs), which are the backbone of the manufacturing sector, have been more severely impacted by Covid-19. Keeping this in mind, the government has extended the Emergency Credit Guarantee Line by one additional year to March 31, 2023, with additional ₹50,000 crore for hospitality and related sectors that were hit the hardest by the pandemic. Credit guarantee for micro and small enterprises (CGTMSE) has also been revamped. Thus, the ameliorative measures in the budget are extremely targeted, bringing efficiency in the use of taxpayers’ money. 

The government has also struck a fine balance between capital expenditure and fiscal consolidation. Fiscal deficit for FY 22-23 has been projected at 6.4% of the Gross Domestic Product (GDP) and the government remains committed to bring it below 4.5% of the GDP by 2025-26. The glide path is going to be smooth and gradual. The Goods and Services Tax (GST) collection of ₹1.41 lakh crore in January 2022, the highest since the inception of this transformative tax regime, assures us of the strength of economic recovery post-pandemic. Hence, there should not be any negative surprises on the revenue front in the coming financial year. We must bear in mind that the current average tax rate under GST is around 11.6%, which is much below the revenue-neutral rate of 15-15.5% calculated by an expert body at the time of its implementation. Therefore, there is enough room to further increase GST collection, should the government choose to. 

Nowhere is the budget as future oriented as when it talks about urbanisation. We all know that our top six cities are bursting at the seams and all additional expenditure being incurred by their governments is to mostly make them liveable for the existing population.  

The FM rightly said that our tier-2 and tier-3 cities will have to step up to shoulder the responsibility of ongoing urbanisation. Cities and towns can be our future engines of growth only when they are properly planned, inclusive and operate on sustainable principles, not when they present a picture of squalor and apathy.  

The emphasis on new building by-laws, revamped town planning and creating centres of excellence in these areas in leading academic institutions through the grant of ₹250 crore to five such institutions show the commitment of the Modi government in this area. 

It is evident from the budget speech that the PM Gati Shakti is going to be the linchpin around which the government will build a world-class, seamless, multi-modal transport and logistics infrastructure, based on clean energy. One of the reasons why our manufacturers are not globally competitive has to do with high logistics costs and broken domestic supply chains.  

The share of logistics costs right now is around 14% of GDP and the government is committed to bring it down to 8-9%. Gati Shakti, with its focus on seven engines (sectors), will bring down logistics costs, reduce tedious documentation and enable lean inventory management. 

In her speech, the FM said that this budget will set the template for the next 25 years, from India@ 75 to India@100, the 25 years of Amrit Kaal. If India commits itself to follow this template of high public capital expenditure, control on populist measures, stable and predictable tax regime and government policies, and a single-minded focus on reforms, this budget will be remembered as the trailblazer.