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Blogspot – Page 12 – Gopal Krishna Agarwal

भारत में पीने योग्य पानी: मूल्य निर्धारण,सर्वमान्य उपलब्धता एवं भारतीय संविधान जीवन के अधिकार के रूप में जल

 जल संसाधनों के प्रबंधन, आपूर्ति और स्वामित्व में सरकार के लिए पानी के विषय में संवैधानिक अधिकारों को समझना बहुत महत्वपूर्ण है। वर्तमान में, जल का अधिकार भारत में न्यायालयों के विभिन्न निर्णयों के माध्यम से ही निर्धारित किया जा रहा है। कई अदालती मामलों में दोहराया गया है कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार के रूप में सरकार द्धारा देश के सभी नागरिकों को पीने का पानी उपलब्ध कराया जाना चाहिए।  अब तक सरकार ने पानी के प्रबंधन और वितरण के लिए मार्गदर्शक निर्देशन के रूप में तीन राष्ट्रीयजल नीतियां बनाई हैं। 

जल का उपयोग सभी क्षेत्रों द्धारा किया जाता है, चाहे वह कृषि, उद्योग, वाणिज्यिक सेवाएं और आवासीय क्षेत्र हो। हालांकि ये  सभी क्षेत्र एक दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं, परन्तु  व्यक्तिगत और घरेलू उपयोग के लिए पानी की उपलब्धता एक मानव अधिकार है। प्रत्येक मनुष्य को पानी का अधिकार है, जो पर्याप्त, सुरक्षित, स्वीकार्य, भौतिक रूप से सुलभ और वहनीय हो। भारत के शहरों में पानी के लिए मानव अधिकार एक बढ़ती हुई चुनौती है, जो तेजी से शहरीकरण के साथ साथ, बुनियादी सेवाओं में  गुणवत्ता के लिए नागरिकों की अधीरता का कारण भी है। 2019 तक, केवल दो करोड़ घरों में पानी के लिए नल के कनेक्शन थे, यह संख्या बढ़कर लगभग नो करोड़ घरों में नल  के द्धारा पानी की उपलब्धता हो गई है। बेशक, किसी के घर में या उसके आस पास केवल नल से पानी का स्रोत होना अच्छी गुणवत्ता या पर्याप्त मात्रा में पानी की कोई गारंटी नहीं है, फिरभी हर घर जल की योजना अति  महत्वपूर्ण हे।  

जहां बुनियादी पहुंच ही नहीं है, वहां स्वच्छता का आश्वासन नहीं दिया जा सकता है। इसलिए पानी और स्वास्थ्य क्षेत्रों के लिए बुनियादी स्तर की पहुंच प्रदान करना सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। पानी की आपूर्ति के लिए लोगों को बहुत और प्रयास करना पड़ता है। घर से दूरी पर पानी का स्रोत, कपड़े धोने, नहाने आदि जैसी गतिविधियों को सुनिश्चित नहीं कर सकता है। पीने के पानी के लिए भी असमानता देखी जाती है इसलिए, सार्वजनिक स्वास्थ्य लाभ के लिए, पानी की उपलब्धता और उसका विस्तार किया जाना आवश्यक है।

भारत में पानी एक भावनात्मक मुद्दा है। बढ़ती आबादी, औद्योगीकरण और शहरीकरण के कारण  पानी की मांग लगातार बढ़ रही है जबकि पानी का उपलब्ध स्तर स्थिर बना हुआ है। विभिन्न उपभोगकर्ताओं, उपयोगों, क्षेत्रों और राज्यों के बीच संघर्ष नियमित चलता रहता है।

हालांकि भारत के संविधान में पानी के अधिकार को स्पष्ट रूप से संरक्षित नहीं किया गया है, लेकिन अदालतों द्धारा इसकी व्याख्या की गई है कि जीवन के अधिकार में संरक्षित और पर्याप्त पानी का अधिकार शामिल है। अधिकांश देशों के राष्ट्रीय कानून में पानी के अधिकार के स्पष्ट संदर्भ की कमी के कारण अदालतों के माध्यम से  ही इस अधिकार को समावेश करने  की आवश्यकता होती है। इसलिए कई देशों में पानी  के  विषय  को पर्यावरण या सार्वजनिक स्वास्थ्य कानून के तहत लाया गया है। अदालतों ने अन्य संवैधानिक अधिकारों, जैसे जीवन के अधिकार या स्वस्थ पर्यावरण के तहत पानी के अधिकार की भी व्याख्या की है।

भारत में जल के अधिकार के लिए न्यायिक दृष्टिकोण, स्पष्ट रूप से सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों के पानी के अधिकार को आश्रय देने के आग्रह को दर्शाता है, जिससे गरीब से गरीब व्यक्ति को जीवन की बुनियादी सुविधाएं प्रदान की जा सकें। स्वच्छ पेयजल तक पहुंच का संवैधानिक अधिकार भोजन के अधिकार, स्वच्छ पर्यावरण के अधिकार और स्वास्थ्य के अधिकार से लिया जा सकता है, ये सभी संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार के अंतर्गत संरक्षित हैं। संविधान अनुच्छेद 21 के अलावा, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के अनुच्छेद 39ब में  भी समुदाय के भौतिक संसाधनों पर समाज के सभी वर्गों के लिए समान पहुंच के सिद्धांत को मान्यता दी गई है।

भारत में भूजल के अधिकार को भूमि के अधिकार के पालन के रूप में देखा जाता है। भारतीय सुगमता अधिनियम, 1882, भूजल के स्वामित्व को भूमि के स्वामित्व से जोड़ता है और यह कानूनी स्थिति तब से ही बरकरार है। लेकिन अधिकार की परिभाषा बताती है कि यदि आपका पड़ोसी बहुत अधिक पानी निकालता है और जल स्तर को कम करता है, तो आपको उसे ऐसा करने से रोकने का अधिकार है। इस प्रकार, भूजल के दोहन के किसी व्यक्ति के अधिकार की भी सीमाएं हैं।

अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में, 28 जुलाई 2010 को संकल्प 64/292 के माध्यम से, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने स्पष्ट रूप से पानी और स्वच्छता प्रदान  करने के मानव अधिकार को मान्यता दी हे, और स्वीकार किया है कि स्वच्छ पेयजल और स्वच्छता का अधिकार मानवाधिकारों की प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं। यह संकल्प राज्यों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों से सभी के लिए सुरक्षित, स्वच्छ, सुलभ और किफायती पेयजल और स्वच्छ जीवन  प्रदान करने के लिए देशों से, विशेष रूप से विकासशील देशों की मदद करने के लिए वित्तीय संसाधन, क्षमता निर्माण और आह्वान हस्तांतरण प्रदान करने का आह्वान करता है। 

भारत में जल अधिकारों और कानूनों का दायराव्यापक हो गया है और भारतीय न्यायपालिका द्धारा एक सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाया गया है, जो अंतरराष्ट्रीय मानदंडों और मानकों को दर्शाता है। भारतीय संविधान की समीक्षा करने वाले राष्ट्रीय आयोग ने अपनी रिपोर्ट में संवैधानिक प्रावधान द्धारा स्पष्टता लाने के लिए सुरक्षित पेयजल के अधिकार के रूप में एक नए अधिकार को शामिल करने की सिफारिश भी की हे। राष्ट्रीय जल कानून 2016 सही दिशा में एक कदम था, लेकिन दुर्भाग्य से यह संसद में पास नहीं हो पाया। पानी के प्रावधान के लिए विभिन्न सरकारों और संस्थाओं के अधिकारों और कर्तव्यों को स्पष्ट रूप से रखने वाला एक कानून समय की आवश्यकता है।

पानी के मूल्य निर्धारण संरक्षण एवं केहाशिएवर्ग की खपत

भारत पानी की कमी वाला देश नहीं है। हमारे पास पानी की पर्याप्त उपलब्धता है। फिर भी, हमारे दैनिक जीवन में हम इस उपलब्धता को महसूस नहीं करते हैं। मुद्दा जल संसाधनों का अकुशल वितरण और प्रबंधन, विशेष रूप से शहरी जल प्रबंधन है।

पानी, जीवन के लिए आवश्यक होने के कारण, एक बहुत ही संवेदनशील मुद्दा है और इसकी चुनौतियां और विभिन्न आयाम हैं, जैसे समान पहुंच, प्रतिस्पर्धी उपयोगए गुणवत्ता के मुद्दे, विकास के साथ विस्थापन, व्यावसायीकरण, निजीकरण, शहरीकरण और अंतर-राज्यीय संघर्ष। सरकार के पास इन मुद्दों के समाधान की बड़ी चुनौती है।

घरेलू पानी का उपयोग गरीब परिवार के जीवन यापन का एक अभिन्न अंग है। यह गरीबी उन्मूलन का महत्वपूर्ण हिस्सा भी है। पानी और स्वास्थ्य सेवाओं को बुनियादी स्तर तक पहुंचाना सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता है। सभी नीतिगत निर्णयों का लक्ष्य हैं की पर्याप्त स्तर पर जल संसाधन मिलने वाले घरों की संख्या में वृद्धि करना और हाशिए के वर्गों की खपत पर विशेष ध्यान केंद्रित करना।

पूर्ववर्ती सर्वे के अनुसार प्रति व्यक्ति घरेलू पानी की खपत और भारतीय मानक (BIS), 2001, दिल्ली मास्टर प्लान, केंद्रीय सार्वजनिक स्वास्थ्य इंजीनियरिंग और पर्यावरण संगठन, और जापान इंटरनेशनल द्धारा दिए गए अनुशंसित मानदंडों के बीच तुलनात्मक विश्लेषण में कम आय वाले क्षेत्रों में खपत की धूमिल तस्वीर दिखाई देती है।

श्इंडिया-अर्बन स्लम सर्वे: (एनएसएस), 69 वें राउंड’ के अनुसार, अखिल भारतीय स्तर पर,  हालांकि स्लम क्षेत्रों में रहने वाले परिवारों में पीने के पानी का स्रोत बढ़ा हुआ दिखता है,

लेकिन दूसरी ओर, गैर-झुग्गी-झोपड़ी क्षेत्रों में रहने वाले परिवारों के पीने के पानी के बेहतर स्रोत का प्रतिशत उस के अनुपात से काफी अधिक दिखता है। इससे पता चलता है कि समाज के आर्थिक रूप से निचले और ऊपरी तबके के बीच पानी की उपलब्धता और उपयोग में असमानता बढ़ रही है।

वर्तमान सरकार की जल जीवन मिशन योजना लगभग देश में सभी उन्नीस करोड़ घरों को नल के द्धारा पानी उपलब्ध कराने: हर घर  की महत्वपूर्ण पहल है और संविधान के अंतर्गत सरकार की प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए एक महत्वाकांक्षी योजना है। इसे हासिल करने से पहले हमें और भी बहुत कुछ कार्य करना होगा। पानी की गुणवत्त्ता, उसका मूल्य और मात्रा सुनिस्चित करना होग।  

नीति स्तर पर प्रतिस्पर्धी विचारधाराएं और विभाजित विचार हैं, विशेष रूप से मूल्य निर्धारण और संरक्षण को लेकर  स्पष्टता नहीं है, हमें पानी के विषय पर गहन चर्चा और पारदर्शिता की आवश्यकता है। व्यक्तियों या घरों के व्यावहारिक उपभोग पर पानी के मूल्य निर्धारण के प्रभाव के संबंध में विविध विचार चल रहे हैं। पानी जैसे घरेलू उपभोग्य वस्तुओं  की कीमत के प्रभाव पर कई अध्ययनों से पता चलता है कि उपभोग पूरी तरह मूल्य पर आधारित नहीं है। इस अंतर्निहित असमानता के बावजूद भी कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि कीमत एक अच्छा जल-मांग प्रबंधन उपकरण हो सकता है। आर्थिक सिद्धांत के आधार पर कीमतों में वृद्धि के साथ अधिकांश वस्तुओं की मांग की मात्रा कम हो जाती है, कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि कुशल जल प्रबंधन के लिए स्पष्ट मूल्य संकेतों की आवश्यकता होती है जो घरों में पानी के कुशल उपयोग के लिए प्रोत्साहन प्रदान करते हैं ओर परिणामस्वरूप पानी की  प्रतिस्पर्धी मांगो के बीचकुशल आवंटन भी होता है।

हम ये जानते हे की, कीमत के बारे में जागरूकता और घरों द्धारा पानी की कीमत में बदलाव के आधार पर उपभोग में बदलाव, मूल्य संवेदनशीलता को मापने के लिए एक संकेतक माना जाता हैए लेकिन हमारे वर्तमान अध्ययन में पाया गया है कि कम आय वाले लगभग 90 प्रतिशत घरों की खपत पानी के मूल्य बढ़ने से कम नहीं होगी, क्यूंकी मूल रूप से उन घरों में पानी के उपभोग का स्तर पहले से ही आवश्यकता के अनुपात में बहुत कम पाया गया है। पानी पर खर्च की गई ब्यक्तिगत  आय कुल आय के अनुपात को एक और पैरामीटर माना जाता है। प्राथमिक आंकड़ों का उपयोग करते हुए हमारे अध्ययन की गणना के अनुसार पानी पर खर्च की गई मात्रा आय के अनुपात का 4.93 प्रतिसत ही है, जिसका अर्थ है कि घरों में पानी के उपभोग पर खर्च मात्रा उनके कुल आय के अनुपात  में बहत कम है।  इसलिए परिवारों में पानी का उपयोग पानी की कीमत पर कम आधारित हैं। और जैसे  जैसे हम निम्न आय वर्ग से उच्च आय वाले उपनिवेशों में जाते हैं, उनका पानी पर खर्च की जाने वाली आय का अनुपात ओर भी कम हो जाता ह। इसलिए निम्न आय वर्ग की कीमतों की संवेदनशीलता उच्च आय समूहों की तुलना में कहीं अधिक है। जिससे यह स्पष्ठ होता है की कीमतो का पानी की खपत पर प्रभाव हाशिए पर रहनेवाली वर्ग पर ही अधिक होगा।

निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि पानी की खपत की मांग अत्यधिक मूल्य-संवेदी नहीं है। मुख्य कारण यह है कि लोग पानी का उपयोग  एक आवश्यकता के रूप में देखते हैं, न कि एक विलासिता के रूप में। इसका तात्पर्य यह भी है कि कीमत बढ़ाने से घरेलू पानी की खपत में उल्लेखनीय कमी नहीं आ सकती है। घरेलू जल उपभोक्ताओं द्वारा भुगतान करने की सहमति के आधार पर अधिकांश साहित्य, पानी के बाजार मूल्य को उचित ठहराते हैं।  लेकिन इन अध्ययनों में एक महत्वपूर्ण पहलू नजरअंदाज किया गया है कि कमी की स्थिति में भुगतान करने की इच्छा हमेशा आवश्यकताओं के लिए बनी रहेगी। पानी जैसे आवश्यक तत्वों से संबंधित नीतियों को डिजाइन करने में सामर्थ्य को ही अधिक प्राथमिकता दी जानी चाहिए। पानी का मूल्य निर्धारण एक महत्वपूर्ण नीतिगत निर्णय है। जिससे उच्च आय वर्ग की तुलना में गरीबवर्ग ही अधिक प्रभावित होंगे।  

घर में पानी की बर्बादी को कम करने का सबसे अच्छा तरीका है घर में पानी बचाने के उपायों के बारे में जागरूकता फैलाना। लापरवाही से पानी के उपयोग के परिणामों के बारे में लोगों में जागरूकता पैदा करने से लोगों को हम इस संसाधन का सही उपयोग करने में अधिक संवेदन शील होने में मदद मिलेगी। कुछ जल प्रबंधन के कुशल उपकरण जैसे कम प्रवाह वाले शावर और नल, दोहरी फ्लशिंग प्रणाली, कपड़े और बर्तन धोने के लिए पानी की बचत करने वाले उपकरण या पुनर्वास कॉलोनियों में सामूहिक नल आदि भी संरक्षण में बहुत मदद कर सकते है।

इस श्रृंखला में, हमने पानी के अधिकार, संरक्षण और समाज के हाशिए पर रहने वाले वर्गों की खपत ओर पानी के मूल्य निर्धारण के प्रभाव को देखा। हमारी सरकार सभी के लिए पानी की उपलब्धता का प्रयास करती है और लागत वसूली के लिए मूल्य निर्धारण और इसके अत्यधिक उपयोग को रोकने में संतुलन बनाती है।

पानी जीवन कातत्व: हाशिए के वर्ग की मूल्य संवेदनशीलता और खपत

के लेखक 

इस श्रृंखला में, हमने पानी के अधिकार, संरक्षण और समाज के हाशिए पर रहने वाले वर्गों की खपत ओर पानी के मूल्य निर्धारण के प्रभाव को देखा। हमारी सरकार सभी के लिए पानी की उपलब्धता का प्रयास करती है और लागत वसूली के लिए मूल्य निर्धारण और इसके अत्यधिक उपयोग को रोकने में संतुलन बनाती है।

इस श्रृंखला में, हमने पानी के अधिकार, संरक्षण और समाज के हाशिए पर रहने वाले वर्गों की खपत ओर पानी के मूल्य निर्धारण के प्रभाव को देखा। हमारी सरकार सभी के लिए पानी की उपलब्धता का प्रयास करती है और लागत वसूली के लिए मूल्य निर्धारण और इसके अत्यधिक उपयोग को रोकने में संतुलन बनाती है।

पानी जीवन कातत्व: हाशिए के वर्ग की मूल्य संवेदनशीलता और खपत

के लेखक 

गोपाल कृष्ण अग्रवाल (अध्यक्ष जलाधिकार फाउंडेशन और भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता)

युथिका अग्रवाल (सहायक प्रोफेसर, अर्थशास्त्र, दिल्ली विश्वविधालय)

पानी का मूल्ये बढ़ाने पर नहीं महत्व समझाने पर रहे ध्यान

गोपाल कृष्ण अग्रवाल,

भारत पानी की कमी वाला देश नहीं है। हमारे पास पानी की पर्याप्त उपलब्धता है। फिर भी हमारे दैनिक जीवन में हम इस उपलब्धता को महसूस नहीं करते हैं और हमारे देश का बड़ा वर्ग शुद्ध पानी से वंचित है। कारण ऐतिहासिक रूप से जल संसाधनों का अकुशल वितरण और प्रबंधन है। पानी जीवन के लिए आवश्यक होने के कारण एक बहुत ही संवेदनशील विषय है और इसकी अनेक चुनौतियां और विभिन्न आयाम हैं। जरूरी है कि यह सभी तक समान रूप से उपलब्ध हो, इसका सही उपयोग हो, अच्छी गुणवत्ता हो। इसके साथ ही आंतरिक विस्थापन, व्यावसाईकरण, निजीकरण, शहरीकरण और अंतरराज्यीय संघर्ष भी इससे जुड़े हैं। सरकार के पास इन मुद्दों के समाधान की बड़ी चुनौती है।

घरेलू पानी का उपयोग गरीब परिवार के जीवनयापन का भी एक अभिन्न अंग है। पानी और स्वास्थ्य सेवाओं को बुनियादी स्तर तक पहुंचाना सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता है। पूर्ववर्ती सर्वे के अनुसार प्रति व्यक्ति घरेलू पानी की खपत और भारतीय मानक (बीआइएस), 2001, दिल्ली मास्टर प्लान, केंद्रीय सार्वजनिक स्वास्थ्य इंजीनियरिंग और पर्यावरण संगठन और जापान इंटरनेशनल द्वारा दिए गए अनुशंसित मानदंडों के बीच तुलनात्मक विश्लेषण में कम आय वाले क्षेत्रों में खपत की धूमिल तस्वीर दिखाई देती है।

इंडिया-अर्बन स्लम सर्वे (एनएसएस), 69 वें राउंड के अनुसार, अखिल भारतीय स्तर पर हालांकि स्लम क्षेत्रों में रहने वाले परिवारों में पीने के पानी का स्रोत बढ़ा हुआ दिखता है, लेकिन दूसरी ओर गैर-झुग्गी-झोपड़ी क्षेत्रों में रहने वाले परिवारों के पीने के पानी के बेहतर स्रोत का प्रतिशत उस के अनुपात से काफी अधिक दिखता है। इससे पता चलता है कि समाज के आर्थिक रूप से निचले और ऊपरी तबके के बीच पानी की उपलब्धता और उपयोग में असमानता बढ़ रही है।

वर्तमान सरकार की जल जीवन मिशन योजना लगभग देश में सभी उन्नीस करोड़ घरों को नल के द्धारा पानी उपलब्ध कराने (हर घर जल) की महत्त्वपूर्ण पहल है और संविधान के अंतर्गत सरकार की प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए एक महत्त्वाकांक्षी योजना है। इसका लक्ष्य हासिल करने से पहले हमें और भी बहुत कुछ करना होगा। पानी की गुणवत्ता, मूल्य और मात्रा सुनिश्चित करनी होगी।

नीतिगत स्तर पर इस लिहाज से कई विचारधाराएं और विचार हैं। विशेष रूप से मूल्य निर्धारण और संरक्षण को लेकर स्पष्टता नहीं है। हमें पानी के विषय पर गहन चर्चा और पारदर्शिता की आवश्यकता है। व्यक्तियों या घरों के व्यावहारिक उपभोग पर पानी के मूल्य के प्रभाव के संबंध में विविध विचार चल रहे हैं। पानी जैसी घरेलू आवश्यक वस्तुओं की कीमत के उपभोग पर प्रभाव को ले कर कई अध्ययनों से पता चलता है कि उपभोग पूरी तरह मूल्य पर आधारित नहीं है। इसके विपरीत कुछ अध्ययनों से यह भी पता चलता है कि कीमत एक अच्छा जल-मांग प्रबंधन उपकरण हो सकता है। आर्थिक सिद्धांत के आधार पर कीमतों में वृद्धि के साथ अधिकांश वस्तुओं की मांग की मात्रा कम हो जाती है, लेकिन जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं पर यह सिद्धांत पूरी तरह नहीं लागू होता।

हम यह जानते हैं कि कीमत के बारे में जागरूकता और पानी की कीमत में बदलाव के आधार पर उपभोग में बदलाव मूल्य संवेदनशीलता को मापने के लिए एक संकेतक माना जाता है। इस संकेतक पर हमारे वर्तमान अध्ययन में पाया गया है कि कम आय वाले लगभग 90 प्रतिशत घरों की खपत पानी के मूल्य बढऩे से कम नहीं होगी, क्योंकि मूल रूप से उन घरों में पानी के उपभोग का स्तर पहले से ही आवश्यकता के अनुपात में बहुत कम पाया गया है। पानी पर खर्च की गई व्यक्तिगत आय का कुल आय के अनुपात को एक और पैरामीटर माना जाता है। हमारे अध्ययन के अनुसार औसतन पानी पर खर्च व्यक्तिगत आय, कुल आय का 4.93 प्रतिशत ही है। जैसे-जैसे हम निम्न आय वर्ग से उच्च आय वाले उपनिवेशों में जाते हैं, उनका पानी पर खर्च की जाने वाली आय का अनुपात और भी कम हो जाता है। इसलिए निम्न आय वर्ग की कीमतों की संवेदनशीलता उच्च आय समूहों की तुलना में कहीं अधिक है। इससे यह स्पष्ट होता है की कीमतों का पानी की खपत पर प्रभाव हाशिए पर रहने वाले वर्ग पर ही अधिक होगा।

निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि पानी की मांग अत्यधिक मूल्य-संवेदी नहीं है। मुख्य कारण यह है कि लोग पानी का उपयोग एक आवश्यकता के रूप में ही करते हैं, न कि एक विलासिता के रूप में। इसका तात्पर्य यह भी है कि कीमत बढ़ाने से घरेलू पानी की खपत में उल्लेखनीय कमी नहीं आ सकती है। यह भी मत भूलिए जब तक किसी चीज की कमी बनी रहेगी लोग आवश्यकता की वजह से उसके भुगतान के लिए तो तैयार हो ही जाएंगे, लेकिन पानी जैसी जरूरी चीज के बारे में निर्णय लेते समय लोगों के सामथ्र्य को ही प्राथमिकता देनी होगी। पानी का मूल्य निर्धारण एक महत्त्वपूर्ण नीतिगत निर्णय है। इससे उच्च आय वर्ग की तुलना में गरीब वर्ग ही अधिक प्रभावित होगा।

घर में पानी की बर्बादी को कम करने का सबसे अच्छा तरीका है घर में पानी बचाने के उपायों के बारे में जागरूकता फैलाई जाए। कम प्रवाह वाले शावर और नल, दोहरी फ्लशिंग प्रणाली, कपड़े और बर्तन धोने के लिए पानी की बचत करने वाले उपकरण मदद कर सकते हैं। सरकार सभी को पानी उपलब्ध कराने का प्रयास कर रही है। साथ ही लागत वसूली के लिए मूल्य निर्धारण और इसके अत्यधिक उपयोग को रोकने में संतुलन बना रही है।

पानी पर आम आदमी के हक़ पर नहीं हो कोई दुविधा

पानी से पेट तो नहीं भरता, लकिन इसके अलावा बिना आप पृथ्वी क्या किसी भी ग्रह पर जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। जीवन का कोई भी ज्ञात स्वरूप जल के बिना अस्तित्व में नहीं रह सकता। हमारे अस्तित्व से लेकर प्रगति तक के लिए बेहद जरूरी इस संसाधन के महत्त्व को समझते हुए हमें यह भी देखना होगा कि इसका प्रबंधन कैसे हो, यह हर व्यक्ति तक कैसे पहुंचे और साथ ही इस पर मालिकाना हक किसका हो। इस समय भारत में पानी पर अधिकार को अदालतों के विभिन्न निर्णयों के माध्यम से ही तय किया जा रहा है। देश की शीर्ष अदालतों ने कई बार दोहराया है कि संविधान के अनुच्छेद- 21 के तहत जीवन के अधिकार के रूप में सरकार को देश के सभी नागरिकों को पीने का पानी उपलब्ध कराया जाना चाहिए। यह वाकई महत्त्वपूर्ण है। अब तक सरकार ने पानी के प्रबंधन और वितरण की राह दिखाने के लिए तीन राष्ट्रीय जल नीतियां बनाई हैं। पानी का उपयोग खेती से लेकर कारोबारी गतिविधियों और रिहायशी इलाकों तक किया जाता है। हालाकि ये सभी क्षेत्र एक दूसरे के साथ मुकाबला करते हैं, लेकिन व्यक्तिगत और घरेलू उपयोग के लिए पानी की उपलब्धता एक मानव अधिकार है।

भारत के शहरों में पानी की उपलब्धता मानव अधिकार के लिहाज से भी एक बड़ी चुनौती है। साथ ही यह तेजी से हो रहे शहरीकरण के साथ बुनियादी सेवाओं में गुणवत्ता तलाश रहे नागरिकों की अधीरता का कारण भी है। 2019 तक केवल दो करोड़ घरों में पानी के लिए नल के कनेक्शन थे। अब लगभग 9 करोड़ घरों में नल के पानी की उपलब्धता हो गई है। बेशक, केवल नल से पानी का स्रोत होना अच्छी गुणवत्ता या पर्याप्त मात्रा में पानी की कोई गारंटी नहीं है, फिर भी हर घर जल की योजना बहुत महत्त्वपूर्ण है। जहां पानी की पहुंच ही नहीं है, वहां स्वच्छता की उम्मीद नहीं की जा सकती है। इसलिए पानी के क्षेत्र में काम करने वालों के साथ ही स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए भी जरूरी है कि लोगों तक पानी की बुनियादी पहुंच सुनिश्चित करने को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाए।

हालांकि भारत के संविधान में पानी के अधिकार को स्पष्ट रूप से संरक्षित नहीं किया गया है, लेकिन अदालतों की ओर से इसकी व्याख्या की गई है कि जीवन के अधिकार में पर्याप्त पानी का अधिकार शामिल है। भारत में जल के अधिकार के लिए न्यायिक दृष्टिकोण स्पष्ट है। इसका मूल भाव है कि गरीब से गरीब व्यक्ति को जीवन की बुनियादी सुविधा के लिए जल प्रदान किया जाए । स्वच्छ पेयजल तक पहुंच का संवैधानिक अधिकार भोजन के अधिकार, स्वच्छ पर्यावरण के अधिकार और स्वास्थ्य के अधिकार से जोड़ा जा सकता है। ये सभी संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार के अंतर्गत संरक्षित हैं। संविधान के अनुच्छेद 21 के अलावा, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों में भी समुदाय के भौतिक संसाधनों पर समाज के सभी वर्गों के लिए समान पहुंच के सिद्धांत को मान्यता दी गई है।

भारत में भूजल के अधिकार को भूमि के अधिकार के साथ जोड़ कर देखा जाता है। भारतीय सुगमता अधिनियम, 1882, भूजल के स्वामित्व को भूमि के स्वामित्व से जोड़ता है। इस कानून की परिभाषा यह भी बताती है कि यदि आपका पड़ोसी बहुत अधिक पानी निकालता है और जल स्तर को कम करता है, तो आपको उसे ऐसा करने से रोकने का अधिकार है। इस प्रकार, भूजल के दोहन के किसी व्यक्ति के अधिकार की भी सीमाएं हैं। अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में देखें तो 28 जुलाई 2010 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने स्पष्ट रूप से पानी और स्वच्छता प्रदान करने के मानव अधिकार को मान्यता दी है। साथ ही स्वीकार किया है कि स्वच्छ पेयजल और स्वच्छता का अधिकार मानवाधिकारों की प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं।

नई परिस्थितियों में पानी से जुड़े अधिकारों और कानूनों का दायरा काफी व्यापक है। भारतीय न्यायपालिका ने इस लिहाज से सकारात्मक दृष्टिकोण भी अपनाया है, जो अंतरराष्ट्रीय मानदंडों और मानकों के अनुकूल ही है। भारतीय संविधान की समीक्षा करने वाले राष्ट्रीय आयोग ने अपनी रिपोर्ट में पानी के अधिकार संबंधी स्थिति में संवैधानिक प्रावधान के माध्यम से स्पष्टता लाने की जरूरत बताई है। इसके लिए सुरक्षित पेयजल के अधिकार के रूप में एक नए अधिकार को शामिल करने की सिफारिश भी इसने की है। राष्ट्रीय जल कानून 2016 सही दिशा में एक कदम था, लेकिन दुर्भाग्य से यह संसद में पास नहीं हो पाया। पानी के प्रावधान के लिए विभिन्न सरकारों और संस्थाओं के अधिकारों-कर्तव्यों को स्पष्ट रूप से दे रखने वाला कानून समय की आवश्यकता है।

यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि हर व्यक्ति तक आसानी से पानी पहुंच सके|

गोपाल कृष्ण अग्रवाल अध्यक्ष, जलाधिकार फाउंडेशन

युथिका अग्रवाल सहायक प्रोफेसर, अर्थशास्त्र, दिल्ली विश्वविद्यालय

Budget for India @75 is a template for Amrit Kaal

A focused, business-like approach to the budget at a time when there was pressure to come up with a populist one shows the maturity and sagacity of the Narendra Modi government. It leaves no doubt that the government is clear on long-term objectives and not too perturbed by short-term disruptions, and that it is committed to putting India on the trajectory of a high single-digit growth rate on a sustainable basis. 

The budget is high on policy stability, predictability and trust-based governance. This is evident from the fact that it has left all important provisions related to direct and indirect taxation unchanged. Government after government has tweaked the tax regime in successive budgets, but the finance minister (FM) has changed the narrative this time. The government has reaffirmed its commitment to keeping tax rates low and, at the same time, easing tax compliances by giving an opportunity to taxpayers to rectify their tax return, subject to a few conditions. 

The government has also decided to follow a sound litigation management policy and declared that if a question of law is pending before a jurisdictional high court or the Supreme Court, the tax department will not file any appeal in a matter involving the same question of law till the time it is settled. Stable and predictable policies play an important role in engendering private economic decisions and fostering economic growth. 

While there are many takeaways from the budget, the continued emphasis on public capital expenditure (capex) is one of the highlights. The FM reiterated that private capital expenditure is still weak, and the government will have to do the heavy lifting. Public capex has been increased by a whopping 35% to ₹7.5 lakh crore for 2022-23. Together with central government grants and aids to state governments for capital expenditure, this figure goes up to ₹10.68 lakh crore. As a result of this, private capex may take off sooner than expected. This will catalyse growth in many business ecosystems. The Economic Survey 2021-22 has already showed that there has been an uptick in bank credit growth. 

Micro, small and medium enterprises (MSMEs), which are the backbone of the manufacturing sector, have been more severely impacted by Covid-19. Keeping this in mind, the government has extended the Emergency Credit Guarantee Line by one additional year to March 31, 2023, with additional ₹50,000 crore for hospitality and related sectors that were hit the hardest by the pandemic. Credit guarantee for micro and small enterprises (CGTMSE) has also been revamped. Thus, the ameliorative measures in the budget are extremely targeted, bringing efficiency in the use of taxpayers’ money. 

The government has also struck a fine balance between capital expenditure and fiscal consolidation. Fiscal deficit for FY 22-23 has been projected at 6.4% of the Gross Domestic Product (GDP) and the government remains committed to bring it below 4.5% of the GDP by 2025-26. The glide path is going to be smooth and gradual. The Goods and Services Tax (GST) collection of ₹1.41 lakh crore in January 2022, the highest since the inception of this transformative tax regime, assures us of the strength of economic recovery post-pandemic. Hence, there should not be any negative surprises on the revenue front in the coming financial year. We must bear in mind that the current average tax rate under GST is around 11.6%, which is much below the revenue-neutral rate of 15-15.5% calculated by an expert body at the time of its implementation. Therefore, there is enough room to further increase GST collection, should the government choose to. 

Nowhere is the budget as future oriented as when it talks about urbanisation. We all know that our top six cities are bursting at the seams and all additional expenditure being incurred by their governments is to mostly make them liveable for the existing population.  

The FM rightly said that our tier-2 and tier-3 cities will have to step up to shoulder the responsibility of ongoing urbanisation. Cities and towns can be our future engines of growth only when they are properly planned, inclusive and operate on sustainable principles, not when they present a picture of squalor and apathy.  

The emphasis on new building by-laws, revamped town planning and creating centres of excellence in these areas in leading academic institutions through the grant of ₹250 crore to five such institutions show the commitment of the Modi government in this area. 

It is evident from the budget speech that the PM Gati Shakti is going to be the linchpin around which the government will build a world-class, seamless, multi-modal transport and logistics infrastructure, based on clean energy. One of the reasons why our manufacturers are not globally competitive has to do with high logistics costs and broken domestic supply chains.  

The share of logistics costs right now is around 14% of GDP and the government is committed to bring it down to 8-9%. Gati Shakti, with its focus on seven engines (sectors), will bring down logistics costs, reduce tedious documentation and enable lean inventory management. 

In her speech, the FM said that this budget will set the template for the next 25 years, from India@ 75 to India@100, the 25 years of Amrit Kaal. If India commits itself to follow this template of high public capital expenditure, control on populist measures, stable and predictable tax regime and government policies, and a single-minded focus on reforms, this budget will be remembered as the trailblazer. 

Govt’s Prudent Economic Policies Made India Better Placed To Deal With Pandemic Crisis; BJP

By Gopal Krishna Agarwal,

The BJP on Thursday said India is better placed than many other countries to deal with the economic fallout of the Covid pandemic due to the Narendra Modi government’s prudent policies and criticized several opposition-ruled state governments for not slashing Value Added Tax on petrol and diesel after the Centre reduced the excise duty.

BJP spokesperson Gopal Krishna Agarwal said the cut in petrol and diesel prices by the Centre and several states, mostly ruled by the BJP-led NDA, will hand over Rs 88,000 crore in the hands of consumers as the central government works to boost demand and noted that nine states – Andhra Pradesh, Jharkhand, Maharashtra, Tamil Nadu, Telangana, Chhattisgarh, West Bengal, Delhi and Kerala – have not reduced VAT.

He said unlike many countries India did not resort to uncontrolled fiscal deficit financing which has made it much better placed to deal with inflationary pressure being felt across the world, including in the US and Europe.

The Modi government resorted to staggered fiscal stimulus and gave sector-specific packages while helping the most vulnerable people with direct benefit transfer, he said.

Alleging the the UPA rule during 2004-14 was a lost decade economically for India.

त्योहारी सीजन में खरीदारी के लिए दोगुने ग्राहक तैयार, ऑनलाइन शॉपिंग और डिजिटल भुगतान पर सभी का जोर

गोपालकृष्ण अग्रवाल,

आर्थिक विषज्ञ

लोकल सर्किल के एक सर्वे में कहा गया है कि मई के महीने में केवल 30 फीसदी उपभोक्ता त्योहारी सीजन में खऱीदारी की योजना बना रहे थे, जबकि सितंबर महीने में 60 फीसदी उपभोक्ताओं ने कहा कि वे आने वाले त्योहारी सीजन में घरेलू उपभोग के लिए खरीदारी करेंगे। इस प्रकार खरीदारी के लिए तैयार उपभोक्ताओं की संख्या में 100 फीसदी का सुधार आया है…

अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर एक और अच्छी खबर है। मई महीने की तुलना में दोगुने ग्राहक आगामी त्योहारी सीजन में खरीदारी करने के लिए तैयार हैं। मई में केवल 30 फीसदी ग्राहक ही खरीदारी करने की योजना बना रहे थे, जबकि सितंबर महीने में यह आंकड़ा दोगुना बढ़कर 60 फीसदी हो गया है। कुल खरीदारी में बड़ा हिस्सा ऑनलाइन बाजार के हिस्से जाने वाला है तो दुकानों की रिटेल खरीद को कुल खरीद का लगभग 48 फीसदी हिस्सा मिलने वाला है। सामानों की खरीद में स्मार्टफोन, इलेक्ट्रॉनिक्स और त्योहारी सीजन के उपहार सबसे ऊपर रहने वाले हैं। आर्थिक विशेषज्ञ इसे अर्थव्यवस्था के सुधरते संकेत के रूप में देख रहे हैं।

लोकल सर्किल के एक सर्वे में कहा गया है कि मई के महीने में केवल 30 फीसदी उपभोक्ता त्योहारी सीजन में खऱीदारी की योजना बना रहे थे, जबकि सितंबर महीने में 60 फीसदी उपभोक्ताओं ने कहा कि वे आने वाले त्योहारी सीजन में घरेलू उपभोग के लिए खरीदारी करेंगे। इस प्रकार खरीदारी के लिए तैयार उपभोक्ताओं की संख्या में 100 फीसदी का सुधार आया है।

खरीदारी के लिए तैयार कुल उपभोक्ताओं में आधे से कुछ ज्यादा 52 फीसदी ने कहा कि वे यह खरीदारी ऑनलाइन बाजार से करेंगे, जबकि 48 फीसदी उपभोक्ता बाजार में जाकर चीजें पसंदकर खऱीदारी करने की तैयारी कर रहे हैं। खरीदारी करने वाले उपभोक्ताओं में 55 फीसदी ने कहा कि वे स्मार्टफोन या कोई इलेक्ट्रॉनिक सामान खरीदने की योजना बना रहे हैं तो 67 फीसदी उपभोक्ताओं ने कहा कि वे कपड़े और फैशन से जुड़े उत्पाद खरीदेंगे।


दीपावली के सीजन में दिए जाने वाले उपहारों के कारण ड्राइफ्रूट या मिठाइयों की खरीद में भी उछाल आएगा। लगभग 72 फीसदी उपभोक्ता ड्राईफ्रूट, चॉकलेट या मिठाइयां खरीदने की तैयारी कर रहे हैं। 48 फीसदी उपभोक्ताओं ने कहा कि वे अपने प्रियजनों के लिए ऑनलाइन सामान खरीदेंगे तो 42 फीसदी उपभोक्ता अपने आसपास की दुकानों से उपहारों की खरीद करेंगे।

दो-तिहाई डिजिटल पेमेंट

ऑनलाइन खरीदारी और डिजिटल पेमेंट अब सामान्य ट्रेंड बनने की ओर तेजी से बढ़ रहा है। लगभग 66 फीसदी उपभक्ताओं ने कहा है कि वे खरीद के लिए ऑनलाइन माध्यम या डिजिटल माध्यम से भुगतान करेंगे। यह सर्वे देश के 396 जिलों में 1.15 लाख उपभोक्ताओं और 38 हजार घरों में लोगों से बातचीत कर तैयार किया गया है। इसमें 67 फीसदी पुरुष और 37 फीसदी महिलाएं शामिल थीं।

हर मानक दिखा रहे अर्थव्यवस्था में तेजी

आर्थिक विशेषज्ञ और भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता गोपाल कृष्ण अग्रवाल ने अमर उजाला से कहा कि अर्थव्यवस्था के हर बड़े मानक सुधार का संकेत दे रहे हैं। अर्थव्यवस्था के अग्रिम सेक्टर के उद्योगों में 11.2 फीसदी की रिकॉर्ड वृद्धि दर्ज की गई है। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में भी वृद्धि हो रही है। केंद्र का जीएसटी कलेक्शन हर महीने एक लाख करोड़ रुपये से ज्यादा दर्ज किया जा रहा है। 81 फीसदी कामकाजी श्रमिकों का वेतन कोरोना पूर्व काल की स्थिति में आ गया है। बजटीय घाटा लगातार कम हो रहा है। ये संकेत बता रहे हैं कि अर्थव्यवस्था बेहतर स्थिति में आ रही है।

भाजपा नेता ने कहा कि अब तक खुदरा सामानों की बिक्री, मांग में कमी और रोजगार के मोर्चे पर अपेक्षित सुधार न होना चिंता का कारण बना हुआ था। लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों ने अपने कर्मचारियों के महंगाई भत्ते में बढ़ोतरी की है और निर्माण कार्यों में तेजी आने से रोजगार के अवसरों में वृद्धि हो रही है। इससे शहरी क्षेत्र के उपभोक्ताओं की खरीद क्षमता में सुधार आया है।

वहीं, कृषि उत्पादों के निर्यात में बढ़ोतरी और फसलों की खरीद से किसानों के हाथ में पैसा पहुंचा है। केंद्र सरकार के द्वारा चलाई जा रही जनकल्याणकारी योजनाओं से भी ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों की आर्थिक क्षमता सुधरी है। इन सब प्रयासों का सकारात्मक परिणाम देखने को मिल रहा है कि लोगों की खरीद क्षमता में सुधार आ रहा है और बाजार में मांग में बढ़ोतरी हो रही है। उन्होंने कहा कि आगे आने वाले दिनों में यह गति बनी रहने की उम्मीद है।

भरोसेमंद नहीं आंकड़े

दिल्ली विश्वविद्यालय के राजधानी कॉलेज में अर्थव्यवस्था के प्रोफेसर डॉ. आभास कुमार ने अमर उजाला से कहा कि इन आंकड़ों पर बहुत भरोसा नहीं किया जा सकता। तकनीकी जानकारी न रखने वाला व्यक्ति भी बाजार में निकलकर देख सकता है कि लोगों के कामकाज में अपेक्षित वृद्धि नहीं हुई है और दुकानों में खरीद अभी कोरोना पूर्व के काल में नहीं आया है। ऐसे में अर्थव्यवस्था के बहुत तेज सुधार के दावे सही नहीं लगते।

प्रो. आभास कुमार के अनुसार, ज्यादातर मानकों के मामले में सरकार कोरोना काल से आज के आंकड़ों की तुलना कर अर्थव्यवस्था के बेहतर होने की बात कह रही है जो भ्रामक सूचना है। कोरोना काल में देश की अर्थव्यवस्था एक तिहाई कामकाज के भरोसे चल रही थी। दो तिहाई कामकाज पूरी तरह से ठप था और अर्थव्यवस्था में रिकॉर्ड गिरावट हुई थी। इसलिए उस स्थिति से तुलना कर आज बेहतरी का दावा करना उचित नहीं है।

हालांकि, यह सही है कि केंद्र-राज्य सरकारों ने अपने-अपने कर्मचारियों के महंगाई भत्ते जारी किए हैं, इससे इनकी खरीद क्षमता बढ़ी है और ये आने वाले त्योहारी सीजन में खरीदारी कर बाजार को एक गति देने का काम कर सकते हैं। लेकिन पूरे देश की आबादी में बेहद सीमित हिस्सा रखने वाला सरकारी नौकरी पेशा वर्ग इतनी बड़ी क्षमता नहीं रखता, जिससे उसके आधार पर पूरे देश की अर्थव्यवस्था में सुधार आने का दावा किया जा सके।

बाजार के कामकाज में सुधार तो हुआ है लेकिन अभी भी यह 50-60 फीसदी तक ही वापस आया है। बेरोजगारी अभी भी चिंताजनक स्तर पर बनी हुई है और हर चीजों की कीमतों में लगातार हो रही वृद्धि आम उपभोक्ताओं की कमर तोड़ रही है। ऐसे में अर्थव्यवस्था ठीक हो गई है और लोगों की क्रय क्षमता वापस आ गई है, इस मनोवैज्ञानिक स्तर तक पहुंचने के लिए अभी इंतजार करना होगा।

 (ये लेखक के अपने विचार हैं)

What Should We Opt For – Private Currencies Or Central Bank- Promoted Digital Currencies?

By Gopal Krishna Agarwal,

Crypto currencies have generated a lot of debate because of their storage value and being used as an asset class. It is a borderline case where it is not illegal to hold crypto currencies, but

but there is a lot of anxiety that the Government is contemplating banning them. Reserve Bank of India has shown its reservation on the use of crypto currencies. The Supreme Court has not taken any position as such other than asking the Government to draft laws and make its stand clear on the regulatory side.

According to recent media reports, there are about 8 million investors in India, holding investments of $ 1.4 billion in various crypto currencies. Several exchanges across India deal in these currencies, facilitating trading, settlement, and promoting crypto currencies. The whole ecosystem is operating in an unregulated regime, neither being illegal with markets ripe with speculations that the Government is ready to ban them at any point of time in the near future. The investors and the intermediaries operate in an uncertain environment and live in anxiety, leading to hyper speculation…

The basic purpose of currencies/money is to facilitate transactions and help in exchange for value. But currently, crypto currencies are not being used as a medium of exchange or for transactions but are seen as an asset class having storage value. This is because of the regulatory gaps at present. Recent developments show that the time has come to fill up this gap as soon as possible.

In 2019, the Government came out with a bill banning crypto currencies, but the Bill did not see the light of the day and got lapsed, leading to further uncertainty and lack of clarity on the subject.

The draft bill in 2019 banning crypto currencies recommended jail term up to 10 years and huge financial penalties on people who mine, generate, hold, sell, transfer, dispose of, issue or deal in crypto currencies.

RBI also came out with a circular on April 6, 2018, forbidding banks from entertaining customers having exposure and dealing in crypto currencies…. This circular was quashed by Supreme Court in its judgment on Internet and Mobile Association of India verses RBI on March 4, 2020, citing, lack of legislation and laws on these currencies, noting that in the absence of any legislation, the RBI cannot impose disproportionate restrictions, like banning buying and selling of crypto currencies. The RBI then officially withdrew the said circular .

While cautioning banks to deal with any kind of exposure with these currencies….

Finance Minister Smt. Nirmala Sitharaman when asked a question on the government stand on the status of crypto currencies, said that “I can only give you this clue that, we are not closing our minds, we are looking at ways in which experiments can happen in the digital world and crypto currencies”, she further added that, “there will be calibrated position taken”.

The Government’s initial plan was to ban private crypto assets while promoting block chain – a secure database technology that can revolutionize international transactions and are the backbone of virtual currencies. Digital currencies across the world are making inroads into financial transactions because of their ease and secured nature. But global central banks, including RBI, vary illegal money getting into the system. with no central bank’s control on financial flows due to lack of one central entity and use of decentralized distributed ledger technology (DLT).

The backbone of crypto currencies is the block chain technologies with distributed ledger technology. The use of distributed ledger technology, which is efficient, secured and is less prone to frauds.
The decentralized database leads to more and more disintermediation, which is cost-effective.

सामाजिक कल्याण योजनाओं का लाभ प्राप्त करना लाभार्थियों के लिए होगा आसान

गोपाल कृष्ण अग्रवाल,

देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में ई-रुपी वाउचर लान्च किया है। इस अवसर पर उन्होंने कहा, ‘यह सरकारी वितरण के लक्षित, पारदर्शी और रिसाव मुक्त वितरण में मदद करेगा। ई-रुपी इस बात का प्रतीक है कि लोगों के जीवन को प्रौद्योगिकी से जोड़कर भारत कैसे प्रगति कर रहा है।’ वर्ष 2014 में जब नरेंद्र मोदी सत्ता में आए तो उनके समक्ष सरकारी वितरण तंत्र में बड़े पैमाने पर होने वाले रिसाव को रोकने की चुनौती थी। सरकार की सामाजिक कल्याण योजनाओं का समुचित लाभ उनके योग्य लाभार्थियों तक सुगमता से नहीं पहुंच पा रही थी।

लिहाजा सामाजिक कल्याण लाभ के लिए वितरण तंत्र को सुव्यवस्थित करने की उन्होंने व्यवस्था की, ताकि भ्रष्टाचार और अन्य रिसावों को रोका जा सके। उन्होंने प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी) की ऐतिहासिक पहल करते हुए बैंकों में सभी देशवासियों के जन-धन खाते खोलना, उसे आधार कार्ड से जोड़ना और आनलाइन फंड ट्रांसफर के लिए डिजिटल तकनीकों के उपयोग के द्वारा वित्तीय समावेशन कार्यक्रम को लागू किया गया। आनलाइन भुगतान तकनीक के लिए अधिक से अधिक एकीकृत भुगतान इंटरफेस (यूपीआइ) विकसित की गई और उनके माध्यम से सीधे लाभार्थी के खाते में धनराशि स्थानांतरित करने की व्यवस्था आरंभ की गई। 

आम आदमी के जीवन में क्रांति लाने के लिए वित्तीय तकनीकों का उपयोग करना प्रधानमंत्री की एक महत्वाकांक्षी परियोजना है। फिनटेक के माध्यम से किए जाने वाले समाधानों के अंतर्गत आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआइ) और डाटा मैनेजमेंट का उपयोग करके नवाचार के लिए स्टार्ट-अप्स को वह निरंतर प्रोत्साहित कर रहे हैं। टैक्स रियायतों के माध्यम से स्टार्ट-अप पारिस्थितिकी तंत्र बनाना और फिर उसके लिए निवेश योग्य धन उपलब्ध कराने के साथ, सरकार का एक स्पष्ट रोडमैप है। अटल इनोवेशन मिशन के माध्यम से अकादमिक और उद्योगों को जोड़ने के लिए भी योजनाएं बनाई गई हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों द्वारा नवाचार को प्रोत्साहन के लिए समूची पेटेंट व्यवस्था को सुदृढ़ करना सरकार की नई पहल है।

इस डिजिटल परिवर्तन ने अमीर और गरीब, शहरी और ग्रामीण आबादी के बीच तकनीकी दूरी को कम करने में मदद की है। पंचायत स्तर पर इंटरनेट कनेक्टिविटी का एकीकृत तंत्र के तौर पर विकसित किया जा रहा है। डिजिटल इंडिया प्लेटफार्म के तहत भी कंप्यूटर सेवा केंद्र (सीएससी) स्थापित करके लोगों के जीवन को सुगम बनाया जा रहा है। प्रौद्योगिकी समाधानों ने सरकारी निर्णय और उसके कार्यान्वयन में मानवीय हस्तक्षेप को काफी हद तक कम कर दिया, जिससे सभी को अपने दैनिक जीवनयापन में सुविधा मिली है। सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों के लिए आनलाइन समाधान मानवीय हस्तक्षेप को कम करता है और इसमें भ्रष्टाचार की आशंकाएं भी कम होती हैं।

डिजिटल इंडिया पहल जैसे जीएसटी का कार्यान्वयन, वर्चुअल ई-मूल्यांकन, सरकारी ई-मार्केट प्लेटफार्म, डिजिटल लाकर, ई-मंडियां, 59 मिनट में पीएसबी लोन, स्टार्ट-अप इकोसिस्टम, टोल प्लाजा पर फास्ट टैग सुविधा और अब ई-रुपी वाउचर ने आम लोगों के जीवन को बदल दिया है। सरकारी योजनाओं को लागू करने के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग करने में हम सफल रहे हैं, चाहे वह लक्षित व्यक्तियों तक सामाजिक लाभ पहुंचाना हो या व्यवसाय करने में आसानी हो या फिर लाभ वितरण और शासन के लिए भ्रष्टाचार मुक्त तंत्र का निर्माण करना हो। जुलाई में भारतीय राष्ट्रीय भुगतान निगम (एनपीसीआइ) के यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस (यूपीआइ) के जरिये रिकार्ड 324 करोड़ लेन-देन किए गए हैं। राशि की बात करें तो इस प्लेटफार्म से 6.06 लाख करोड़ रुपये के लेन-देन किए गए।

केंद्र सरकार करीब 300 सरकारी योजनाओं के अंतर्गत लक्षित लाभार्थियों को 17.5 लाख करोड़ रुपये की धनराशि हस्तांतरित करने में सफल रही है और इस राशि को गलत हाथों में जाने से रोककर लगभग 1.75 लाख करोड़ रुपये की बचत करने में भी सफल रही है। इस साल सरकार ने न्यूनतम मूल्य पर खाद्यान्न खरीद कर किसानों के खाते में 86 हजार करोड़ रुपये ट्रांसफर किए हैं। सरकार ने प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के तहत भी बड़ी राशि सीधे किसानों के खाते में ट्रांसफर की है। ई-रुपी वाउचर की नई पहल लक्षित व्यक्ति तक फंड ट्रांसफर करने के लिए एक अभिनव साधन बनकर उभरेगी।

जब सरकार ई-रुपी वाउचर जारी करती है, तो वह सुनिश्चित करती है कि फंड का उपयोग केवल निश्चित उद्देश्य के लिए ही किया जा सकता है। यह व्यक्ति-विशिष्ट भुगतान प्रणाली प्री-पेड उपहार-वाउचर के रूप में कार्य करती है, जिसे निर्धारित सेवा केंद्रों पर भुनाया जा सकता है। यह योजना सेवाओं के प्रायोजकों, लाभार्थियों और सेवा प्रदाताओं को एक डिजिटल प्लेटफार्म पर साथ ले आएगी। एक बार जब यह वाउचर किसी निजी संगठन या व्यक्ति द्वारा जारी किया जाएगा, तो उसे इस बात का भरोसा होगा कि इस निधि का उपयोग उनके निर्देशानुसार ही होगा।

दरअसल सरकार ‘पुश माडल’ पर काम कर रही है, जहां योजनाओं की घोषणा की जाती है, लक्ष्य निर्धारित किए जाते हैं और सरकारी अधिकारियों को उनके कार्यान्वयन के लिए जिम्मेदार बनाया जाता है, न कि ‘पुल माडल’ पर जहां नागरिकों को लाभ लेने के लिए सरकारी विभागों के पीछे भागना पड़ता है। ई-रुपी वाउचर की पहल लक्षित व्यक्ति तक रकम हस्तांतरित करने की दिशा में सार्थक साबित हो सकती है। इस व्यवस्था के माध्यम सरकारी धन के रिसाव को नियंत्रित किया जा सकेगा।

[राष्ट्रीय प्रवक्ताभाजपा]

IBC And GST To Farm Laws And NEP, Narendra Modi Is Reformist Prime Minister

By Gopal Krishna Agarwal,

Prime Minister Narendra Modi’s 20 years in public life. In the last two decades, from being a hard-working chief minister, he has gone on to become a towering global personality. He has become the longest-serving head of an elected government, fourth longest-serving Prime Minister and the longest serving non-Congress Prime Minister of India. During 2001 to 2014, he served 4,607 days as the chief minister of Gujarat. He was elected as the 14th Prime Minister of the country in 2014 and since then he has been in office. He enjoys mass appeal like no other leader, neither in the party nor in the country.

When he took the baton of Gujarat in 2001, the state was ruined by a devastating earthquake and then struggling with economic disruption due to communal violence in 2002. To revive the state, he conceptualized and held a state-level conclave ‘Vibrant Gujarat Global Investors Summit’ (VGGIS) in 2003 to attract investment and to build investors’ confidence. The result of the efforts made by him was that Gujarat registered an impressive double digit growth during 2004-05 to 2011-12. The growth rate peaked at 15 per cent in 2005-06. According to IBEF, Gujarat is one of the high growth states and a leading industrialized state in the country. It is estimated that Gujarat’s GDP will grow by 7 per cent YoY and will reach at Rs 18.80 lakh crore in FY22.

The Gujarat development model has always been a subject of discussion. The Gujarat model made such a splash in the 2014 General Election to the Lok Sabha that it pushed Modi to the pinnacle of power. As in Gujarat, Modi found the Indian economy too in a dilapidated condition. In 2014, our economy was bracketed with the worst performing economies. The economy was going through challenging times that culminated in lower than 5 per cent growth of GDP at factor cost at constant prices for two consecutive fiscals – FY13 and FY14. Wholesale price index inflation in food articles that averaged 12.2 per cent annually during 2008-09 to 2013-14 was significantly higher than non-food inflation.

Ensuring Water For The Marginalized – II

By Gopal Krishna Agarwal,

The judicial approach to water rights regime in India clearly showcases the urge of the Supreme Court and various high courts to shelter the right to water, thereby, providing basic amenities of life to the poorest of poor. The constitutional right to access to clean drinking water can be drawn from the right to food, the right to clean environment and the right to health, all of which have been protected under the broad rubric of the right to life guaranteed under Article 21 of the Constitution.

In addition to Article 21, Article 39(b) of the Directive Principles of State Policy, recognizes the principle of equal access to the material resources of the community.

The right to groundwater in India is seen as following the right to land. The Indian Easements Act, 1882, links groundwater ownership to land ownership and this legal position has remained intact since then. The definition of the right suggests that if your neighbor extracts too much water and lowers the water table, you have the right to prevent him from doing so. Thus, there are limits to an individual’s right to exploit groundwater.

In the international scenario, through Resolution 64/292, on July 28, 2010, the UN General Assembly explicitly recognized the human right to water and sanitation, and acknowledged that clean drinking water and sanitation are essential to the realization of all human rights. The Resolution calls upon states and international organizations to provide financial resources, capacity-building and technology transfer to help countries, in particular developing countries, to provide safe, clean, accessible and affordable drinking water and sanitation for all.

The scope of water rights and laws in India have been widened and a positive approach has been adopted by the Indian judiciary, reflecting the international norms and standards. The National Commission that reviewed the Indian Constitution, recommended in its report, the inclusion of a new right in the form of right to safe drinking water to avoid ambiguity and also to bring clarity by constitutional provision. A legislation clearly framing the rights and duties of various government and institution for provisioning of water is the need of the hour.

The National water framework law 2016 was a step in the right direction, but unfortunately it lapsed in Parliament and could not see the light of the day.